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राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धांत | Divine Origin Theory in Hindi

इस आर्टिकल में राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धांत (divine origin theory in hindi), राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं, दैवी सिद्धांत के समर्थक, दैवी सिद्धांत की आलोचना और महत्व के बारे में चर्चा की गई है।

राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत क्या है?

राज्य की उत्पत्ति के संबंध में प्रचलित दैवी सिद्धांत (Divine Origin Theory) सबसे अधिक प्राचीन हैं। दैवी सिद्धांत के अनुसार राज्य मानवीय नहीं वरन् ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है।

ईश्वर या तो यह कार्य स्वयं ही करता है या इस संबंध में अपने किसी प्रतिनिधि की नियुक्ति करता है। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होने के नाते केवल उसी के प्रति उत्तरदाई होता है और राजा की आज्ञा का पालन प्रजा का परम पवित्र धार्मिक कर्तव्य है।

दिल्ली के मामलुक वंश के 9 वे सुल्तान ग्यासुद्दीन बलबन ने राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के समान राजाओं के सिद्धांत को तैयार करने वाला पहला मुस्लिम शासक था।

बलबन कहा करता था कि, “सुल्तान पृथ्वी पर भगवान का प्रतिनिधि (नियाबत-ए-खुदाई) था अतः उसका स्थान केवल पैगम्बर के पश्चात है। और राज्य राजाओं की दिव्य संस्था है।”

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं

(1) राज्य मानव कृत नहीं वरन ईश्वरीय सृष्टि है। राज्य न तो स्वयं विकसित संस्था है एवं न ही वह मानवकृत संस्था है।

(2) राजतन्त्र ही शासन का अनन्य उचित रूप है।

(3) राजाओं का विरोध नहीं करना चाहिए।

(4) राज्य शक्ति का प्रादुर्भाव ईश्वर द्वारा हुआ है। ईश्वर ही राजाओं को शक्ति प्रदान करता है। राजा केवल ईश्वर के ही प्रति उत्तरदायी है।

(5) जिस प्रकार ईश्वर का प्रत्येक कार्य अनिवार्य रूप से सृष्टि के हित में होता है उसी प्रकार राजा के सभी कार्य ठीक, न्यायसंगत, और आवश्यक रूप से जनता के हित में होते हैं।

(6) राजाओं को शासन का आनुवंशिक अधिकार है अर्थात पिता के बाद पुत्र सत्ता का अधिकारी होता है।

(7) राजाओं की आलोचना या निंदा धर्म विरुद्ध है। इसी बात के आधार पर जेम्स प्रथम ने कहा था कि, “ईश्वर क्या करता है, इस पर विवाद करना नास्तिकता तथा पाखंड है। इसी प्रकार ह्रदय में राजा के कार्यों के प्रति आलोचना का भाव होना अथवा उसके द्वारा यह कहा जाना कि राजा यह कर सकता है और यह नहीं कर सकता, राजा का अपमान, अनादर और तिरस्कार करना है।”

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया

विविध धर्मग्रंथों में राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत का समर्थन किया गया है। सर्वप्रथम समर्थक यहूदी धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ (Old Testament) में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। सेण्ट आगस्टाइन और पोप ग्रेगरी द्वारा भी इस सिद्धांत का समर्थन किया गया है।

आगे चलकर अन्य ईसाई संतों ने भी यह कहा है कि, “राजा के प्रति विद्रोह की भावना ही ईश्वर के प्रति विद्रोह है और जो ऐसा करेगा उसे मृत्यु मिलेगी।”

प्राचीन भारत में ऋग्वेद और यजुर्वेद आदि वैदिक साहित्य, ब्राह्मण ग्रंथों, पुराणों, महाभारत और मनुस्मृति में इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजा सूर्य, चंद्र, यम, कुबेर, इंद्र, वरूण, पवन और अग्नि सृष्टि की इन 8 सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तियों और तत्वों से समन्वित होता है।

भारतीय धर्म ग्रंथ मनुस्मृति में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बतलाते हुए एक स्थान पर कहा गया है –

बालोऽपि नावमंतव्यो, मनुष्य: इति भूमिप:।
महती देवता ह्योषा, नर रूपेण तिष्ठति।।

अर्थात राजा यदि बालक हो, तब भी मनुष्य मानकर उसकी अवमानना नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य के रूप में देवता है।

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का सबसे प्रबल समर्थन 17वीं शताब्दी में स्टुअर्ट राजा जेम्स प्रथम द्वारा अपनी पुस्तक ‘Law of Monarchy’ में किया गया।

जेम्स प्रथम का प्रसिद्ध वाक्य है, “राजा लोग पृथ्वी पर ईश्वर की जीवित प्रतिमाएं हैं।”

जेम्स प्रथम के बाद रॉबर्ट फिल्मर और बूजे के द्वारा इस सिद्धांत का समर्थन किया गया। राबर्ट फिल्मर ने अपनी पुस्तक ‘पैट्रियाकी’ में पृथ्वी का प्रथम राजा आदम को माना है।

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत की आलोचना

राज्य की उत्पत्ति का देवी सिद्धांत एक लंबे समय तक प्रचलित रहा, किंतु आज के वैज्ञानिक और प्रगतिशील संसार में से अस्वीकार कर दिया गया है। वस्तुतः सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों ही आधारों पर यह सिद्धांत त्रुटिपूर्ण है।

यह सिद्धांत अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक तथा मानव अनुभव के विरुद्ध है। वस्तुतः राज्य एक मानवीय संस्था है तथा राज्य के कानूनों का निर्माण व उन्हें लागू करना मनुष्य का ही कार्य है।

इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि राज्य ईश्वरकृत है। गिलक्रिस्ट के शब्दों में, “यह धारणा कि परमात्मा इस या उस मनुष्य को राजा बनाता है, अनुभव एवं साधारण ज्ञान के सर्वथा प्रतिकूल है।”

राजा को ईश्वर की जीवित प्रतिमाएं मानने का स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि राधा स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश हो जाएगा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अपने आपको ईश्वर का अंश कहने वाले शासकों ने जनता पर अनेक अत्याचार किए और उन्हें ईश्वरीय प्रकोप से डराकर उन पर निरंकुशता का व्यवहार किया।

हमारे धार्मिक ग्रंथ यही बताते हैं कि ईश्वर प्रेम और दया का भंडार है, लेकिन व्यवहार के अंतर्गत अनेक राजा बहुत अधिक अत्याचारी और दुष्ट प्रकृति के होते हैं। इन दुष्ट राजाओं को प्रेम और दया के भंडार ईश्वर का प्रतिनिधि कैसे कहा जा सकता है ? ऐसी परिस्थितियों में देवी सिद्धांत नितांत अतार्किक हो जाता है।

प्रारंभ में चर्च के पादरियों का मत था कि ईश्वर द्वारा बुरे राजा को जनता को दंड देने के लिए भेजा जाता है, परंतु जनता चाहे जितनी पापी क्यों न हो, नैतिकता के किसी भी सिद्धांत के अनुसार बुरे राजा ईश्वरीय नहीं हो सकते हैं।

दैवीय सिद्धांत को स्वीकार करने का परिणाम यह होगा कि राज्य को पवित्र-पावन संस्था समझकर उनके स्वरूप में आवश्यकता अनुसार परिवर्तन नहीं किए जा सकेंगे। इस रूढ़िवादी धारणा के कारण राज्य का परिवर्तित रूप मानव जीवन के लिए उपयोगी नहीं रहेगा।

राज्य की उत्पत्ति का देवी सिद्धांत ईश्वर में आस्था रखने वाले व्यक्तियों के लिए तो राजा की आज्ञा पालन का आधार बन सकता है, लेकिन नास्तिक व्यक्ति राजा की आज्ञा का पालन क्यों करें अतः नास्तिक व्यक्ति के लिए निर्रथक है, इसके लिए इस सिद्धांत में कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया गया है।

वर्तमान समय के प्रजातांत्रिक राज्य में राज्य के प्रधान को जनता के द्वारा निर्वाचित किया जाता है, अतः दैवी सिद्धांत का यह प्रतिपादन कि राजा को ईश्वर नियुक्त करता है, नितांत अवास्तविक एवं काल्पनिक हो जाता है।

दैवीय सिद्धान्त के पतन के कारण

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के पतन के मुख्यत: तीन कारण रहें हैं –

  1. राज्य और चर्च का आपस में संघर्ष।
  2. सामाजिक समझौता सिद्धान्त का उदय।
  3. लोकतांत्रिक विचारधारा का उदय।

दैवीय सिद्धांत का महत्व

यद्यपि आज दैवी सिद्धांत अस्वीकार किया जा चुका है, लेकिन प्रारंभिक काल में जब मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक अंग को धर्म से संबंध समझता था, दैवी सिद्धांत अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हुआ।

राज्य को दैवी संस्था और राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर इस सिद्धांत ने प्रारंभिक व्यक्ति को राजभक्ति एवं आज्ञा पालन का पाठ पढ़ाया। इस प्रकार दैवी सिद्धांत के द्वारा व्यवस्थित जीवन की नींव रखी गई।

दैवी सिद्धांत का इस दृष्टि इसे भी महत्व है कि यह राजनीतिक व्यवस्था के नैतिक आधार पर जोर देता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि राजा के द्वारा अपने आप को ईश्वर के प्रति उत्तरदाई मानते हुए जनता के कल्याण के लिए सतत् प्रयत्न किए जाने चाहिए।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. दैवी सिद्धांत के अनुसार राज्य क्या है?

    उत्तर : दैवीय सिद्धांत के अनुसार राज्य मानवीय नहीं बल्कि ईश्वर द्वारा स्थापित संस्था है।

  2. राज्य के उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के मुख्य प्रवक्ता कौन है?

    उत्तर : यहूदी (सर्वप्रथम), सेण्ट आगस्टाइन और पोप ग्रेगरी। प्रबल समर्थन 17वीं शताब्दी में स्टुअर्ट राजा जेम्स प्रथम द्वारा अपनी पुस्तक ‘Law of Monarchy’ में किया गया।

  3. दैवीय उत्पत्ति सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता है?

    उत्तर : दैवीय उत्पत्ति सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता निम्न है –
    1. राज्य ईश्वर निर्मित संस्था है।
    2. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है।
    3. राजपद वंशानुगत है।

  4. दैवीय सिद्धान्त के पतन के क्या कारण थे?

    उत्तर : दैवीय सिद्धान्त के पतन के निम्न कारण थे –
    1. सामाजिक समझौता सिद्धान्त का उदय।
    2. लोकतांत्रिक विचारधारा का उदय।
    3. राज्य और चर्च में आपसी संघर्ष।

My name is Mahendra Kumar and I do teaching work. I am interested in studying and teaching competitive exams. My qualification is B.A., B.Ed., M.A. (Pol.Sc.), M.A. (Hindi).

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