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न्याय का अर्थ एवं परिभाषा

इस आर्टिकल में न्याय की अवधारणा, न्याय का अर्थ, न्याय की परिभाषा, न्याय का अर्थ एवं परिभाषा के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।

न्याय का अर्थ (Meaning of Justice)

न्याय का शाब्दिक अर्थ – न्याय (Justice) शब्द लैटिन भाषा के ‘Justia’ शब्द से बना है जिसका अर्थ – जोड़ना या सम्मिलित करना होता है।

न्याय के अर्थ का निर्णय करने का प्रयत्न सबसे पहले यूनानियों और रोमनों ने किया। रोमनों तथा स्टोइकों ने न्याय की एक किंचित् भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बल्कि उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्राचीन यूनानी चिंतन में न्याय की नैतिक दृष्टि से विवेचना की गई है। न्याय के परंपरागत दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार व्यक्ति के चरित्र से था। परंपरागत धारणा कानूनी और राजनीतिक, राजनीतिक न्याय ही था। आर्थिक न्याय के लिए कोई स्थान नहीं था।

पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन में न्याय की व्याख्या सर्वप्रथम प्लेटो ने की। प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो के चिंतन का मुख्य आधार न्याय की संकल्पना थी। उसने जो न्याय की तस्वीर खींची वह परंपरागत दृष्टिकोण का उपयुक्त उदाहरण है।

प्लेटो ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ (Republic) में न्याय सिद्धांत का प्रतिपादन एक नैतिक सिद्धांत के रूप में किया है। उसने न्याय शब्द का प्रयोग धर्म (लौकिक धर्म) के अर्थ में किया है।

प्लेटो ने न्याय को परिभाषित करते हुए उसे सद्गुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए।

प्लेटो ने न्याय की स्थापना के उद्देश्य में नागरिकों के कर्तव्य पर बल दिया तथा न्यायपूर्ण व्यवस्था हेतु नागरिकों के तीन वर्ग बनाए – (1) दार्शनिक शासक (2) सैनिक वर्ग (3) उत्पादक वर्ग। प्लेटो (plato) ने अपने न्याय सिद्धांत में दार्शनिक वर्ग के शासन का समर्थन किया है।

प्लेटो के शिष्य अरस्तु ने न्याय के अर्थ में संशोधन करते हुए कहा कि न्याय का अभिप्राय आवश्यक रूप से एक खास स्तर की समानता है। यह समानता व्यवहार की समानता तथा आनुपातिकता या तुल्यता पर आधारित हो सकती है।

अरस्तू ने आगे कहा कि व्यवहार की समानता से ‘योग्यतानुसारी न्याय’ उत्पन्न होता है और आनुपातिकता से ‘वितरणात्मक न्याय’ प्रतिफलित होता है। इसमें न्यायालयों तथा न्यायाधीशों का काम योग्यतानुसार न्याय का वितरण होता है और विधायिका का काम वितरणात्मक न्याय का वितरण होता है। दो व्यक्तियों के बीच के कानूनी विवादों में दण्ड की व्यवस्था योग्यतानुसारी न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए, जिसमें न्यायपालिका को समानता के मध्यवर्ती बिंदु पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए और राजनीतिक अधिकारों, सम्मान, संपत्ति तथा वस्तुओं के आवंटन में वितरणात्मक न्याय के सिद्धांतों पर चलना चाहिए।

इसके साथ ही किसी भी समाज में वितरणात्मक और योग्यतानुसारी न्याय के बीच तालमेल बैठाना आवश्यक है। फलतः अरस्तू ने किसी भी समाज में न्याय की अवधारणा को एक परिवर्तनधर्मी संतुलन के रूप में देखा, जो सदा एक ही स्थिति में नहीं रह सकती।

अरस्तु वितरणात्मक न्याय का अग्रज प्रतिपादक था। अरस्तु का न्याय सिद्धांत कानून पर आधारित है। अरस्तु ने न्याय के दो भेद बताए हैं (1) वितरणात्मक अथवा राजनीतिक न्याय (2) सुधारक न्याय (corrective justice)।

अरस्तू के अनुसार वितरणात्मक अथवा राजनीतिक न्याय का अर्थ राजनीतिक पदों पर नियुक्ति नागरिकों की योग्यता तथा उनके द्वारा राज्य के प्रति की गई सेवा के अनुसार होनी चाहिए। सुधारक न्याय का अर्थ है नागरिकों के मध्य सुव्यवस्थित रुप से सामाजिक जीवन कायम करना।

आधुनिक चिंतन में न्याय की कानूनी दृष्टि से विवेचना की गई है। आधुनिक दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय से है तथा आधुनिक तथा समाजवादी धारणा में न्याय की आर्थिक अवधारणा पर अधिक जोर दिया है।

दार्शनिक संकल्पना में सामाजिक न्याय (social justice) एक समतावादी समाज की स्थापना का उद्देश्य लेकर चलता है। मनु और कौटिल्य के न्याय संबंधी विचारों को पश्चिम के राजनीतिक चिंतक आधुनिक युग में ही अपना सके।

न्याय के विभिन्न अर्थ

  • न्याय में व्यक्ति का विकास तथा सामाजिक कल्याण (social welfare) दोनों विचार निहित है।
  • न्याय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हो सकता।
  • न्याय दुर्बल का हित नहीं है।
  • सामाजिक न्याय बंधुता के आदर्श को साकार करना चाहता है।
  • व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं उसके अधिकारों की रक्षा।
  • व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में सामंजस्य।
  • सभी व्यक्तियों के साथ समानता का व्यवहार।
  • किसी विशेष कारण के बिना न्यायपूर्ण व्यवहार से किसी को वंचित न किया जाना।
  • न्याय संभाव्यता सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है।
  • मध्ययुग में न्याय को सद्गुण के रूप में अपनाया गया था।
(1) कानूनी न्यायऔपचारिक न्याय है
(2) तात्विक न्यायकानून का सार तत्व है
(3) राजनीतिक न्यायस्वतंत्रता के आदर्श को प्रमुख मानता है
(4) आर्थिक न्यायसमानता के आदर्श को महत्व देता है
(5) न्याय का व्यापक दर्शनराजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय है

न्याय की परिभाषा (Definition of Justice)

डेविड ह्यूम, “न्याय के उदय का एकमात्र आधार सार्वजनिक उपयोगिता है।”

“कानून का पालन ही न्याय है।”

ऑगस्टाइन, “जिन राज्यों में न्याय नहीं रह जाता, वे डाकुओं के झुंड मात्र कह सकते हैं।”

“न्याय को ईश्वरीय राज्य का प्रमुख तत्व माना है।”

अरस्तु, “न्याय का सरोकार मानवीय संबंधों के नियमन से है।”

बार्कर, “न्याय को अंतिम मूल्य कहा है।”

जॉन रॉल्स, “न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम सद्गुण है।”

अरस्तु, “न्याय वह सद्गुण है जो हम एक दूसरे के साथ व्यवहार में प्रदर्शित करते हैं।”

प्लेटो, “आत्मा के तत्वों के अनुरूप कर्तव्यों के निर्धारण को न्याय का आधार माना है।”

“न्याय निरपेक्ष (absolute) अवधारणा है।”

डी. डी. रैफल, “न्याय द्विमुखी है।”

जे एस मिल, “न्याय सामाजिक उपयोगिता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है।”

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. न्याय शब्द की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई है ?

    उत्तर : न्याय लैटिन भाषा के ‘Justia’ शब्द से जस्टिस अर्थात न्याय शब्द की उत्पत्ति हुई है जिसका अर्थ – जोड़ना या सम्मिलित करना होता है।

  2. न्याय का अर्थ प्रत्येक को उसका हक देना है। कथन किसका है ?

    उत्तर : न्याय का अर्थ प्रत्येक को उसका हक देना है। यह कथन कॉम्टें के अनुयायी एल एल ब्रूहल का है। यह कथन प्रत्यक्षवादी न्याय से संबंधित है।

  3. वितरणात्मक न्याय का क्या अर्थ है ?

    उत्तर : अरस्तू के अनुसार वितरणात्मक अथवा राजनीतिक न्याय का अर्थ राजनीतिक पदों पर नियुक्ति नागरिकों की योग्यता तथा उनके द्वारा राज्य के प्रति की गई सेवा के अनुसार होनी चाहिए।

  4. न्याय किस सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है ?

    उत्तर : न्याय संभाव्यता सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है।

My name is Mahendra Kumar and I do teaching work. I am interested in studying and teaching competitive exams. My qualification is B.A., B.Ed., M.A. (Pol.Sc.), M.A. (Hindi).

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