इस आर्टिकल में भारतीय राजनीतिक विचारक कौटिल्य का परिचय, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कौटिल्य की दंड नीति, कौटिल्य का प्रभुसत्ता सिद्धांत, कौटिल्य की मंत्रिपरिषद्, कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत, गुप्तचर व्यवस्था, प्रशासनिक भ्रष्टाचार की रोकथाम, कौटिल्य का मंडल सिद्धांत, राजनीतिक चिंतन को कौटिल्य की देन आदि के बारे में चर्चा की गई है।
कौटिल्य का परिचय
प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारक कौटिल्य (Kautilya) का नाम अर्थशास्त्र के लेखक के रूप में प्रसिद्ध है। इसमें कौटिल्य के अतिरिक्त विष्णुगुप्त नाम भी दिया गया है।
कौटिल्य का तीसरा नाम चाणक्य (chanakya) माना जाता है जो चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री का नाम था, विशाखदत्त ने अपने प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ मुद्राराक्षस में चाणक्य, कौटिल्य विष्णुगुप्त नामों से भी पुकारा है। जिससे यह संकेत मिलता है कि यह तीनों एक ही व्यक्ति के नाम थे।
भारतीय राजनीतिक विचारक कौटिल्य (Kautilya) एक यथार्थवादी विचारक था। जिसको ‘भारत का मैकियावेली’ (India’s Mechiavelli) भी कहा जाता है।
कौटिल्य का जन्म पाटलिपुत्र में हुआ था। कौटिल्य की शिक्षा दीक्षा नालंदा विश्वविद्यालय (Nalnda University) में हुई और तक्षशिला विश्वविद्यालय (Takshila University) में एक आदर्श शिक्षक के रूप में कार्य किया। सशस्त्र शास्त्र के ज्ञाता, शासन एवं कूटनीतिज्ञ में महारथी थे।
राज्य की सर्वोच्चता (Supermacy of the State)
कौटिल्य ने राज्य को अपने आप में साध्य मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया है। राज्य के हित के सामने वे नैतिकता के सिद्धांतों को भी परे रख देते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
Kautilya’s Arthashatra : अर्थशास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का विवेचन विष्य पॉलिटिक्स (राज्यशास्त्र, राजनीति शास्त्र) है। देखा जाए तो कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल राजनीतिक चिंतन का सारांश ही प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि व्यवहारिक प्रशासन के मार्गदर्शक के रूप में अधिक विख्यात है।
डॉ. अलतेकर के अनुसार, “कौटिल्य का अर्थशास्त्र राज्यशास्त्र का ऐसा सैद्धांतिक ग्रंथ नहीं है जिसमें प्रशासन या राजनीति विज्ञान के मूल सिद्धांतों का विवेचन किया गया हो, बल्कि यह प्रशासक के लिए लिखी गई मार्गदर्शिका है।”
यह ग्रंथ युद्ध एवं शांति दोनों समय पैदा होने वाली शासन की व्यवहारिक समस्याओं पर विचार करते हुए प्रशासन के संयंत्र एवं उसके कार्यों का विवेचन करता है। कूटनीति के विवेचन में कौटिल्य इतने प्रसिद्ध हुए की बाद की पिढ़ियों में सफल कूटनीतिज्ञों को कौटिल्य अवतार कहा जाने लगा।
अर्थशास्त्र को 15 अधिकरणों और 150 अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें 180 विषयों पर लगभग 6000 श्लोक हैं। इसमें राजनीति और कूटनीति, कानून और प्रशासन, इत्यादि के बुनियादी सिद्धांतों को संक्षेप में व्यक्त करके कौटिल्य ने गागर में सागर भर दिया है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आरंभ में 4 विद्याओं का उल्लेख है –
- आन्वीक्षिकी – दर्शन और तर्क
- त्रयी – धर्म -अधर्म, वेदों का ज्ञान
- वार्ता – कृषि, व्यापार आदि
- दंड नीति – शासन कला या राजनीति शास्त्र
कौटिल्य की दंड नीति (Kautilya’s Dandaniti)
कौटिल्य ने दंड नीति के चार उद्देश्यों का विवरण दिया है –
- अलब्ध की प्राप्ति – अर्थात जो कुछ अभीष्ट है परंतु प्राप्त नहीं हुआ है, उसे प्राप्त कैसे किया जाए।
- लब्ध का परिरक्षण – अर्थात जो कुछ प्राप्त कर लिया गया है, उसकी रक्षा कैसे की जाए।
- रक्षित का विवर्धन – अर्थात जिसकी रक्षा की गई है, उसमें बढ़ोतरी कैसे की जाए।
- विवर्धित का सूपात्रों में विभाजन – अर्थात जिसकी बढ़ोतरी की गई है, उसे उपयुक्त पात्रों में वितरित कैसे किया जाए।
दंड नीति को अर्थशास्त्र के उद्देश्यों की सिद्धि का साधन मान सकते हैं। दंड राज्य शक्ति का प्रतीक है, नीति से यह निर्देश मिलता है कि इस शक्ति का प्रयोग न्याय पूर्ण होना चाहिए।
कौटिल्य का प्रभुसत्ता सिद्धांत
Kautilya’s Theory of Sovereignty : राज्य की उत्पत्ति के संबंध में अर्थशास्त्र में किसी सिद्धांत की विवेचना नहीं की गई है फिर भी कौटिल्य के राज दर्शन में राज्य की उत्पत्ति में उस संविदा सिद्धांत के दर्शन होते हैं जिसका व्यापक विवेचन आगे चलकर हॉब्स लॉक रूसो द्वारा किया गया।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अंतर्गत राजा की स्थिति और शक्तियों का जो विवरण दिया गया है उसे हम पाश्चात्य चिंतन के परिप्रेक्ष्य में उसका प्रभुसत्ता सिद्धांत मान सकते हैं।
कौटिल्य ने राजा या प्रभुसत्ताधारी की उत्पत्ति की जो व्याख्या दी है वह यूरोप में प्रचलित सामाजिक अनुबंधन (social contract) के सिद्धांत से मिलती-जुलती है। जिसमें प्राकृतिक दशा की कल्पना की गई है।
कौटिल्य ने अराजकता की स्थिति की कल्पना की है। कौटिल्य ने इसे ‘राजनीतिक दायित्व की उद्भावना’ के स्थान पर ‘कर चुकाने के दायित्व’ के रूप में हमारे सामने रखा है। उन्होंने प्रभुसत्ताधारी को पूर्ण शक्तियां (Absolute Power) प्रदान करने के लिए धार्मिक मान्यताओं का सहारा लिया है। और साथ ही कर्तव्यों के बंधन से भी बांध दिया है।
यदि राजा अपने कर्तव्यों का पालन न कर पाए तो क्या प्रजा उसके विरुद्ध विद्रोह कर सकती है ? ऐसा तो नहीं कहा है, परंतु उनके कराधान – सिद्धांत से संभवत: यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यदि राजा प्रजा के कुशल क्षेम की व्यवस्था न कर पाए तो कर देना बंद कर सकती है।
कौटिल्य के अनुसार राजसत्ता के उदय से पूर्व में सर्वत्र अराजकता का बोलबाला था। यह मत्स्य न्याय की स्थिति थी। कौटिल्य के अनुसार प्रजा को चाहिए कि वह राजा का आदर करें दूसरी और राजा का भी यह कर्तव्य है कि वह प्रजा की रक्षा करने में कोई कमी ना रहने दे।
आचार्य कौटिल्य सिद्धांतत: राजा को पूर्णसत्तावादी और सर्वाधिकारवादी स्थिति और शक्तियां तो प्रदान करते हैं, परंतु व्यावहारिक स्तर पर प्राचीन हिंदू राज्य प्रणाली के अंतर्गत राजा की प्रभुसत्ता पर अनेक नियंत्रण प्रचलित थे। वैसे भी प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन इतना स्वायत था कि उस पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की गुंजाइश बहुत कम थी।
कौटिल्य की मंत्रिपरिषद्
Kautilya’s Council of Ministers : कौटिल्य ने अमात्य यानी मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं की है। मंत्री परिषदों की संख्या समय परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार होनी चाहिए।
राज्य के प्रमुख मंत्रियों अमात्य, विभागाध्यक्षों एवं अधिकारी वर्गों को कौटिल्य ने अष्टादश (18) तीर्थों की संज्ञा देते हैं।
यह तीर्थ मंत्री (प्रमुख), पुरोहित, सेनापति, युवराज, द्वारिका, दुर्गपाल, मंत्री परिषद का अध्यक्ष, विभागाध्यक्ष, अंतर्वेशिका (अंतः पुर का रक्षक), समाहगी (महाधिश), सन्निधात्री (मुख्य कोषाध्यक्ष), प्रवेष्ट्री (आयुक्त), नायक (नगर रक्षक), और व्यावहारिक (दीवानी न्यायाधिकारी), कार्यान्तिक (कारखानों का अध्यक्ष), सिताध्यक्ष (कृषि संबंधी), पौर (नगर का प्रधान), दंडपाल (सेना विभाग का अधिकारी)।
कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत
‘Seven Organs’ Theory of the State by Kautilya : कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत के अनुसार राज्य सात तत्वों से निर्मित होता है। यह राज्य के अंग कहलाते हैं। जैसे शरीर के अंग होते हैं वैसे ही राज्य के भी यह अंग होते हैं जो राज्य से अलग नहीं किए जा सकते। कौटिल्य ने राज्य के इन 7 अंगों की तुलना मानव शरीर के अंगों से की है।
- स्वामी – अर्थात राजा (राज्य के सिर तुल्य)
- अमात्य – मंत्री (राज्य की आंख)
- सुहृद् – राजा का मित्र (राज्य के कान)
- कोष – राज्य का मुख्य
- सेना – राज्य का मस्तिष्क
- दुर्ग – राज्य की बाहें
- पुर या जनपद – भूमि एवं प्रजा (राज्य की जंघाएं
कौटिल्य की गुप्तचर व्यवस्था (Espionage System)
अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने गुप्तचर सेवा के संगठन तथा कार्य प्रणाली पर दो विशेष अध्याय लिखे हैं, और संपूर्ण कृति में जहां तहां इसका उल्लेख किया है। उन्होंने गुप्तचरों की विभिन्न श्रेणियों का विवरण दिया है और गोपनीय सूचना के संप्रेषण के लिए सांकेतिक भाषा तथा संदेशवाहक कबूतरों के प्रयोग का आदेश दिया है।
वे गुप्त वार्ता विभाग का नियंत्रण 5 गुप्तचर संस्थाओं को सौंपने का विधान करते हैं जहां गुप्तचरों को प्राप्त सूचनाएं पहुंचानी चाहिए और वहीं से अपने कार्य के बारे में आवश्यक आदेश प्राप्त करने चाहिए।
इन संस्थाओं के अतिरिक्त कुछ विशेष गुप्तचरों की नियुक्ति भी होनी चाहिए,जो सिने ही किसी उच्च स्तर के मंत्री या राजा के अधीन होनी चाहिए। यहां तक की मंत्रियों की गतिविधियों पर सतर्कता रखने के लिए राजा अपने अधीन गुप्तचरों को नियुक्त करता था।
एक विशेष प्रकार के गुप्तचर ‘सत्री’ कहलाते थे, जिन्हें बाल्यकाल से ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता था कि वह साधु या ज्योतिष के भेष में प्रजा के निकट पहुंचकर गुप्त सूचनाएं प्राप्त कर सके।
आचार्य कौटिल्य ने राज्य के भीतर और बाहर महत्वपूर्ण स्थानों पर गुप्तचरों का जाल बिछाने का आदेश दिया है। कहीं सन्यासियों के रूप में तो कहीं गृहस्थ के रूप में, कहीं विद्यार्थी के रूप में तो कहीं विद्वान के भेष में, कहीं कृषक बनकर तो कहीं व्यापारी बनकर अपना कार्य करने के लिए गुप्तचरों का विस्तृत संगठन अपेक्षित था।
गुप्त सूचनाएं संकलित करने के अतिरिक्त गुप्तचरों का एक महत्वपूर्ण कार्य था – राजा की लोकप्रियता की रक्षा करना। आधुनिक शासन प्रणाली में जनसंपर्क अधिकारी (Public Relations Officer) का जो कार्य है, कौटिल्य की प्रणाली में उसे गुप्तचरों को सौंपा गया है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार की रोकथाम
Prevention of Administrative Corruption : कौटिल्य ने चेतावनी दी है कि सरकारी कर्मचारियों के आचरण के मामले में विशेष सतर्कता (vigilance) बरतना जरूरी है। प्रशासनिक भ्रष्टाचार की संभावना को व्यक्त करने के लिए उन्होंने जो दृष्टांत दिए हैं, उनमें इनकी अनोखी सूझ बूझ झलकती है।
उन्होंने लिखा है कि कोई व्यक्ति अपनी जिह्वा पर रखे हुए मधु या विष के स्वाद के प्रति उदासीन रहे, ऐसा संभव नहीं है। मतलब यह है कि राजपुरुष अर्थात सरकारी अधिकारी निर्लिप्त भाव से न तो अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं न अपने दायित्वों का निर्वाह कर सकते हैं। फिर उन्होंने यह लिखा है कि पानी में चलने फिरने वाली मछली कब, कैसे और कितना पानी पी जाती है, यह पता लगाना बहुत मुश्किल है।
मतलब यह कि प्रशासनिक अधिकारी अपनी शक्ति का प्रयोग करते समय कितना स्वार्थ साधन कर लेंगे यह मालूम करना अत्यंत कठिन है। अतः राजा को इनकी गतिविधियों पर लगातार निगरानी रखनी चाहिए।
कौटिल्य का मंडल सिद्धांत
Kautilya’s Theory of State System : अर्थशास्त्र में वैदेशिक (परराष्ट्र नीति) यानी विदेश नीति का विशद विवेचन किया गया है तथा विदेशों में गुप्तचर और राजदूत रखने के विषय पर भी विचार किया गया है। इस क्षेत्र में कौटिल्य प्लेटो और अरस्तू से निश्चित रूप से आगे है।
दूसरे राज्यों के साथ व्यवहार के संबंध में उसने दो सिद्धांतों का विवेचन किया है – पड़ोसी राज्यों के साथ संबंध स्थापित करने के लिए मंडल सिद्धांत और अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए 6 लक्षणों वाली षाड्गुण्य नीति।
मंडल सिद्धांत के अनुसार मंडल केंद्र ऐसा राजा होता है जो पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपने में मिलाने के लिए प्रयत्नशील है। कौटिल्य ऐसे राजा को विजिगिषु राजा (विजय की इच्छा रखने वाला) राजा कहां है।
आक्रान्दासार <– पाष्णिग्राह्यासार <– आक्रान्द <– पाष्णिग्राह्या <– विजिगिषु (मध्यम) –> अरि –> मित्र –> अरि मित्र –> शत्रु –> अरि मित्र मित्र।
षाड्गुण्य नीति – 6 लक्षणों वाली नीति। संधि, विग्रह (युद्ध), यान (शत्रु पर वास्तविक आक्रमण करना), आसन (तटस्थता), संश्रय (बलवान का आश्रय लेना) और द्वैधी भाव (संधि और युद्ध का एक साथ प्रयोग करना)।
विदेश नीति के सफल संचालन हेतु अन्य भारतीय आचार्यों की भांति ही कौटिल्य ने भी साम, दाम, दंड और भेद इस प्रकार के चार उपायों का विधान किया है।
कौटिल्य ने लिखा है कि निर्बल राजा को शाम और दाम की नीति का प्रयोग करना चाहिए, जबकि बलवान राजा को दंड और भेद की नीति से बहुत लाभ होगा। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत यूरोपीय दार्शनिक मेकियावली के विचारों का पूर्व संकेत मिलता है। कौटिल्य ने छल कपट और छिपकर मंत्रणा देने की विधि को भी राज्य शिल्प का वैद्य तरीका स्वीकार किया है।
यह बात महत्वपूर्ण है कि कौटिल्य तथा अन्य प्राचीन भारतीय विचारकों ने केवल उन लोगों के साथ छल कपट की नीति अपनाने का समर्थन किया है जो राज्य के विध्वंस पर तुले हो। इस तरह उनकी दृष्टि में छल कपट राजनीति का सामान्य तरीका नहीं था, बल्कि यह आपद्धर्म का मार्ग था, अर्थात केवल आपत्ति या संकट के समय यह रास्ता अपनाने की अनुमति दी गई थी।
सैन्य संगठन – चतुरंगी – जो सैनिक होते हैं और हाथी, घोड़े और रथ। सेना के पास होनी चाहिए। इसमें हस्ति बल को ज्यादा महत्व दिया गया है।
कौटिल्य के अनुसार शत्रु के विरुद्ध युद्ध करने में राजा के पास तीन शक्तियां होनी चाहिए :
- उत्साह शक्ति – यह उसके पराक्रम, साहस और मनोबल पर आश्रित है।
- मंत्र शक्ति – यह विजिगीषु के ज्ञान और सूझ-बूझ पर आश्रित है।
- प्रभु शक्ति – यह उसके कोष और सैन्य बल पर आश्रित है।
इन तीनों शक्तियों में उत्साह शक्ति को प्रधानता प्रदान की गई है।
युद्ध के तीन प्रकार बताए हैं :
- प्रकाश या धर्म युद्ध – पूर्ण तैयारी के साथ विधिवत रूप से घोषित युद्ध।
- कूट युद्ध – छल कपट, लूटमार, अग्निदाह आदि तरीकों से।
- तूष्णी युद्ध – विष सदृश साधनों का प्रयोग और छल कपट से गुप्त रूप से मनुष्यों का वध।
कौटिल्य ने कहा कि शासक के द्वारा युद्ध अंतिम विकल्प के रूप में ही अपनाया जाना चाहिए।
पश्चिमी जगत में राज्य शिल्प की विख्यात शिक्षक निकोलो मेकियावेली ने शासक को केवल 2 पशुओं के गुण सीखने की सलाह दी है – उसे सिंह की तरह शूरवीर होना चाहिए और लोमड़ी की तरह चालाक होना चाहिए। दूसरी और, चाणक्य ने शासक को विभिन्न पशु पक्षियों के 20 गुण सीखने का निर्देश दिया है। इससे यह सिद्ध होता है कि राज्य शिल्प के मामले में मैक्यावली के मुकाबले कौटिल्य का दृष्टि पटल कितना विशाल था।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य –
कौटिल्य, “प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजा का हित है, राजा के लिए प्रजा के सुख से भिन्न अपना सुख नहीं है, प्रजा के सुख में ही उनका सुख है।”
कौटिल्य, “राजा और प्रजा में पिता और पुत्र का संबंध होना चाहिए।”
नई भूमि प्राप्त करना (युद्ध करके जीतकर लाना) अर्थशास्त्र का इतना प्रमुख विषय है कि अर्थशास्त्र के 15 अधिकरणों में से 9 अधिकरण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से युद्ध से ही संबंध रखते हैं।
कौटिल्य राजतंत्र को ही शासन का एकमात्र स्वाभाविक और श्रेष्ठ प्रकार मानता है। कौटिल्य का राजा निरंकुश नहीं है उस पर नीतिगत, संस्थागत और व्यवहारिक प्रतिबंध लगाए हैं। कौटिल्य का राज्य कल्याणकारी राज्य (Welfare state) है।
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में दो प्रकार के न्यायालय धर्मस्थीय और कंटक शोधन, जिन्हें वर्तमान समय में दीवानी तथा फौजदारी न्यायालयों का लगभग प्रयायवाची कहा जा सकता है।
कौटिल्य के मतानुसार राज्य के कानून के चार मूल स्त्रोत हैं – धर्म अथवा धर्मशास्त्र, व्यवहार, प्रजा, न्याय।
अपराधियों के लिए तीन प्रकार के दंड बताए हैं – शारीरिक दंड, आर्थिक दंड तथा कारागार।
मंत्रियों की तीन श्रेणियां बताई गई है – उत्तम मध्यम व क्षुद्र।
अर्थशास्त्र (Arthashatra) का मुख्य विषय है – दंड नीति (शासन कला या राजनीति शास्त्र)
सन 1904 में आर शाम शास्त्री ने प्रथम बार अर्थशास्त्र की पांडुलिपि की खोज की।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का योगदान
कौटिल्य का अर्थशास्त्र सभी पुरोगामी अर्थशास्त्रों अर्थात राजनीतिक विचारों का सार है। राजनीति की एक स्वतंत्र विषय के रूप में विवेचना की। कौटिल्य (Kautilya) एक यथार्थवादी विचारक था। लोक कल्याणकारी व्यवस्था के जनक थे। एक सुदृढ़ व विकेंद्रीकृत शासन प्रदान किया।
पाश्चात्य राजनीति में जो कार्य अरस्तु, मैक्यावली और बेकन ने मिलकर किया, भारत में यह अकेले चाणक्य (chanakya) ने संपादित किया। पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का विचारक अरस्तु, कौटिल्य के समकालीन और यथार्थवादी विचारक हैं। दोनों ने ही राजनीति को सर्वोच्च महत्व दिया और एक विषय के रूप में राजनीति की विवेचना की।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
कौटिल्य की अर्थशास्त्र का मुख्य विषय है?
उत्तर : कौटिल्य की अर्थशास्त्र (Arthashatra) का मुख्य विषय है – दंड नीति (शासन कला या राजनीति शास्त्र)।
कौटिल्य किस प्रकार के विचारक थे?
उत्तर : भारतीय राजनीतिक विचारक कौटिल्य (Kautilya) एक यथार्थवादी विचारक था। जिसको ‘भारत का मैकियावेली’ (India’s Mechiavelli) भी कहा जाता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र राज्य द्वारा नियुक्त कितने अध्यक्षों का उल्लेख करता है?
उत्तर : कौटिल्य का अर्थशास्त्र राज्य द्वारा नियुक्त अष्टादश (18) अध्यक्षों का उल्लेख करता है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य के कितने अंग की चर्चा है?
उत्तर : कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य के 7 अंगों की चर्चा है। ये सात अंग इस प्रकार है – 1. स्वामी – अर्थात राजा (राज्य के सिर तुल्य), 2. अमात्य – मंत्री (राज्य की आंख), 3. सुहृद् – राजा का मित्र (राज्य के कान), 4. कोष – राज्य का मुख्य, 5. सेना – राज्य का मस्तिष्क, 6. दुर्ग – राज्य की बाहें, 7. पुर या जनपद – भूमि एवं प्रजा (राज्य की जंघाएं।