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राज्य की प्रकृति का सावयव या आंगिक सिद्धांत

इस आर्टिकल में राज्य का स्वरूप तथा राज्य के स्वरूप से संबंधित आंगिक या सावयव सिद्धांत, सावयव/आंगिक सिद्धांत का विकास, राज्य की प्रकृति के सावयव सिद्धांत की आलोचना और महत्व, हर्बर्ट स्पेंसर और सावयव सिद्धांत के बारे में चर्चा की गई है।

राज्य का स्वरूप (Nature of State)

प्रत्येक विचारक ने अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार राज्य पर विचार किया है और उसे उन लक्ष्यों से युक्त माना है जो उसकी विचार प्रणाली के अनुसार होते हैं।

उदाहरण के लिए समाजशास्त्री राज्य को एक सामाजिक तथ्य के रूप में मानते हैं, इतिहासकार इसको ऐतिहासिक विकास का फल मानते हैं, नैतिक दार्शनिक इनको नैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक संस्था मानते हैं, मनोवैज्ञानिक इसको एक ऐसा संगठन मानते हैं जो अपनी इच्छा कानूनों के अनुसार प्रकट करता है।

राजनीति शास्त्री इसको एक ऐसी संस्था मानते हैं जो शांति और व्यवस्था हेतु बनी है और विधि शास्त्री इसको कानूनों की उत्पत्ति और कानूनी अधिकारों की रक्षा हेतु निर्मित एक संस्था मानते हैं।

इस प्रकार विभिन्न विद्वानों ने राज्य की प्रकृति के संबंध में विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। राज्य के स्वरूप के संबंध में प्रतिपादित इन सिद्धांतों में विधि शास्त्रीय सिद्धांत, सावयव सिद्धांत, सामाजिक समझौता सिद्धांत और आदर्शवादी सिद्धांत प्रमुख है।

राज्य की प्रकृति के संबंध में सर्वाधिक प्रमुख सिद्धांत निश्चित रूप से दो ही हैं : पहला राज्य की प्रकृति का सावयव सिद्धांत और दूसरा राज्य की प्रकृति का आदर्शवादी सिद्धांत।

राज्य की प्रकृति के संबंध में एक अन्य सिद्धांत का प्रतिपादन कार्ल मार्क्स और एंजिल्स के द्वारा किया गया है जिसे वर्ग सिद्धांत का नाम दिया जा सकता है।

राज्य के स्वरूप का आंगिक या सावयव सिद्धांत

Organic Theory of Nature of State : सावयव सिद्धांत के अंतर्गत राज्य को मानव शरीर का स्वरूप माना गया है। इस सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग होते हैं और वह उनसे मिलकर बनता है उसी प्रकार राज्य के विभिन्न अंग होते हैं और वह उनसे मिलकर बनता है।

जिस प्रकार शरीर अंगों का समूह मात्र नहीं होता और उसका उन अंगों से पृथक भी अस्तित्व है आता है, उसी प्रकार यद्यपि व्यक्तियों से मिलकर राज्य का निर्माण होता है, किंतु इन व्यक्तियों से पृथक भी राज्य का अपना एक अस्तित्व होता है। जिस प्रकार शरीर से पृथक अंगों का कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार राज्य से पृथक व्यक्तियों का कोई अस्तित्व नहीं होता है।

प्राणी शरीर के समान ही राज्य भी विकासशील होता है। इस प्रकार सावयव सिद्धांत राज्य को कल्पनामात्र न मानकर उसको एक वास्तविक व्यक्ति शरीर मानता है और इसके अनुसार राज्य और व्यक्ति में उसी प्रकार की अंतर्निर्भरता का संबंध है जिस प्रकार का संबंध जीवधारी और उसके विभिन्न शारीरिक अंगों में होता है।

गार्नर के अनुसार, “सावयव सिद्धांत एक प्राणी वैज्ञानिक धारणा है जो राज्य को जीवधारी व्यक्ति मानता है, उसका निर्माण करने वाले व्यक्तियों को जीवधारी शरीर के कोष्ठों के समान समझता है और राज्य तथा व्यक्ति के बीच ठीक उसी प्रकार के अन्योन्याश्रित संबंध की कल्पना करता है, जैसा संबंध शरीर और उसके अंगों के बीच होता है।”

सावयव/आंगिक सिद्धांत का विकास

Development of Organic Theory : वस्तुतः सावयव सिद्धांत उतना ही पुराना है जितना कि स्वत: राजनीतिक विचारधारा। प्लेटो ने राज्य को एक वृहत आकार का मनुष्य बताकर व्यक्ति तथा राज्य के बीच पूर्ण सादृश्य स्थापित किया है। उसके समाज को 3 वर्गों में विभाजित किया शासक, योद्धा तथा श्रमिक। इस विभाजन का आधार मानव आत्मा के 3 गुण बुद्धि, साहस और इंद्रिय तृष्णा माने है।

अरस्तू ने भी राज्य तथा उसके नागरिकों की तुलना शरीर तथा उसके अंगों से की है। रोमन विद्वान सिसरो भी इसी विचारधारा का समर्थक है और वह राज्य के प्रधान को मानव शरीर पर शासन करने वाली आत्मा की उपमा देता है।

मध्य युग में जॉन ऑफ सैलिसबरी, मार्सीलियो ऑफ पेडुआ, ऑक्हम,अल्थूसियस, थॉमस एक्विनास आदि कई मध्ययुगीन लेखकों ने भी इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।

इसके बाद हॉब्स और रूसो ने भी इस प्रकार के विचारों का प्रतिपादन किया। इसी प्रकार हॉब्स ने अपनी राज्य विषयक पुस्तक का नाम ‘लेवियाथन’ (Levaithan) अर्थात ‘विशालकाय जलीय’ जंतु रखा है। परंतु हॉब्स और रूसो की विवेचना तथा तुलना अत्यधिक अतिशयोक्तिपूर्ण है।

19 वीं सदी के प्रारंभ में राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक समझौता सिद्धांत का ह्वास होने के साथ ही सावयव सिद्धांत की नवीन अभिव्यक्ति प्राप्त हुई।

प्राचीन युग और मध्य युग के विचारकों ने तो राज्य और मानव शरीर के बीच तुलना ही उपस्थित की थी। उनका यह विचार था कि राज्य मानव शरीर या जीवधारी से मिलता-जुलता है। किंतु उन्नीसवीं सदी के विचारक इससे आगे बढ़ गए और उन्होंने राज्य को जीवधारी या मानव शरीर ही माना।

विस्तार के साथ इस प्रकार की धारणा का प्रतिपादन किया गया और उस काल में राज्य रूपी शरीर के साथ पोषक व्यवस्था, स्नायविक प्रणाली, परिचालन व्यवस्था आदि गुण भी जोड़ दिए गए।

राज्य के संबंध में इस नवीन विचारधारा का जन्म जर्मनी में हुआ और वहां इसे फिक्टे और ब्लंटशली की विचारधारा का प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ।

ब्लंटशली ने तो इस सिद्धांत को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। एक स्थान पर ब्लंटशली लिखता है कि, “जिस प्रकार एक तैल चित्र तेल के मात्र बिंदुओं से कुछ अधिक वस्तु होता है , जिस प्रकार प्रस्तर मूर्ति संगमरमर के टुकड़ों से अधिक है, जिस प्रकार एक मनुष्य जीवाणुओं मात्र के परिणाम तथा रक्त जीवाणुओं की अपेक्षा कुछ उच्च होता है, उसी प्रकार राष्ट्र नागरिकों के योग मात्र से कुछ अधिक है और वह नियमों के संग्रह मात्र से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।”

ब्लंटली ने तो अपने जीवधारी की तुलना को इस सीमा तक आगे बढ़ाया कि राज्य को यौन गुणों के साथ जोड़ दिया और उसे पुरुष का रूप प्रदान किया।

हर्बर्ट स्पेंसर और सावयव सिद्धांत

Herbert Spencer and Organic Theory : यद्यपि सावयव सिद्धांत अत्यंत पुराना है और प्लेटो, अरस्तु, सिसरो, हॉब्स, रूसो आदि अनेक विचारकों की धारणाओं में इसका प्रतिपादन हुआ है, लेकिन सावयव सिद्धांत का सबसे विशद विवेचन इंग्लैंड के विचारक हरबर्ट स्पेंसर ने अपनी पुस्तक ‘समाजशास्त्र के सिद्धांत में किया है और इसी प्रकार सावयव सिद्धांत स्पेंसर के नाम के साथ संबंध है।

इसने राज्य और व्यक्ति के बीच सूक्ष्म रूपक बांधते हुए यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि राज्य या समाज एक प्राकृतिक जीवित शरीर है जो अन्य जीवधारियों से किसी भी तरह भिन्न नहीं है। उसने राज्य और शरीर के बीच निम्न प्रकार से समानताएं बतलाई है :

(1) रचना : जिस प्रकार शरीर की रचना रक्त, मांस, हड्डी आदि से होती है उसी प्रकार राज्य भी व्यक्तियों से मिलकर बना है।

(2) जन्म : प्राणी शरीर तथा राज्य दोनों का ही जन्म जीवाणुओं के रूप में प्रारंभ होता है।

(3) विकास : जीवधारी और राज्य दोनों की वृद्धि और विकास का क्रम एक सा ही है। जिस प्रकार जीव और शरीर। साधारणतया समानता से भिन्न तथा जटिलता की ओर बढ़ते चलते हैं, उसी प्रकार राज्य भी एक साधारण तथा प्राकृतिक अवस्था में धीरे-धीरे विकसित होकर आधुनिक रूप प्राप्त कर सकता है।

(4) परस्पर निर्भरता : जीवधारी शरीर और राज्य दोनों में ही अंतर्निर्भरता पाई जाती है। जिस प्रकार एक अंग के निर्बल और बीमार हो जाने का प्रभाव संपूर्ण शरीर पर पड़ता है उसी प्रकार राज्य का स्वास्थ्य और बल तथा उसकी स्मृति भी उस राज्य के व्यक्तियों और वर्गों पर निर्भर करती है।

(5) संगठन : राज्य तथा शरीर का संगठन भी एक ही प्रकार का होता है। शरीर के तीन भाग होते हैं जीवन प्रणाली, विभाजन प्रणाली और विनियम प्रणाली। इस प्रकार की तीनों प्रणालियों पर मस्तिक अपना पूर्ण नियंत्रण रखता है। शरीर का मुख्य अंग यही है। राज्य का संगठन भी इसी प्रकार का है।

स्पेंसर ने 1860 में वेस्ट मिनिस्टर रिव्यू (Westminster Review) नामक पत्रिका में लेख लिखा, जिसमें उसने ह्रदय से बाहर रक्त ले जाने वाली और बाहर से हृदय को रक्त पहुंचाने वाली नांड़ियां तथा रेल के ऊपर तथा नीचे की ओर से ले जाने वाली तार की लाइनों में समानता बतलाई थी।

(6) विनाश क्रम : जिस प्रकार शरीर नाशवान होता है और उसका निरंतर विनाश होता रहता है। शरीर के पुराने घटकों के स्थान पर नवीन घटक आते रहते हैं, उसी प्रकार राज्य में वृद्ध और बीमार व्यक्ति मरते हैं तथा उसके स्थान पर नवीन व्यक्ति जन्म लेते रहते हैं। इस प्रकार स्पेंसर राज्य और मानव शरीर में समानता स्थापित करता है।

असमानताएं : ऊपर बताई गई समानता के होते हुए भी स्पेंसर स्वीकार करता है कि राज्य व मानव शरीर में प्रमुख रूप से दो भेद हैं –

(1) पारस्परिक निर्भरता की सीमा में भेद : जीव रूपी शरीर के अंग यदि एक दूसरे से या शरीर से अलग हो जाएं तो उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता।

जैसे : हाथ या पैर को शरीर से अलग कर देने पर उनका कोई उपयोग और महत्व नहीं रहेगा, लेकिन यदि राज्य के अंग अलग कर दिए जाए तो भी उनका महत्व बना रहता है। उदाहरण के लिए राज्य के नष्ट हो जाने पर भी उसके अंग मनुष्य का कुछ महत्व बना रहेगा।

(2) चेतना शक्ति का भेद : शरीर के अंतर्गत समस्त चेतना शक्ति मस्तिष्क से केंद्रित होती है और शरीर के अंगों की अपनी कोई पृथक चेतना नहीं होती। किंतु राज्य में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पृथक पृथक चेतना शक्ति होती है जो दूसरों से पूर्णतया स्वतंत्र होती है।

इन असमानताओं के आधार पर स्पेंसर ने यह निष्कर्ष निकाला कि समाज में प्रत्येक के कल्याण की बात सोची जाती है और समाज का अस्तित्व अपने सदस्यों के कल्याण हेतु ही होता है। समाज के सदस्य इसके कल्याण का साधन मात्र नहीं हो सकते हैं। स्पेंसर के व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का यही केंद्रीय भाव है।

राज्य की प्रकृति के सावयव सिद्धांत की आलोचना

Criticism of Organic Theory of Nature of State: साहित्यिक दृष्टि से प्राणी शरीर तथा राज्य की तुलना भले ही रुचिकर एवं सुंदर प्रतीत हो, किंतु वास्तविक अर्थ में राज्य और मानव शरीर के बीच समानता नहीं है और ना ही सावयव सिद्धांत राज्य के स्वरूप की पूर्णतया संतोषजनक व्याख्या है।

लॉ फर का मत है कि, “यदि हम तुलना करते करते एकरूपता बताने लगे और कहने लगे कि राज्य एक व्यक्ति है या रीड की हड्डी वाला प्राणी है तो वह सामान्य ज्ञान के विरुद्ध होगा।”

लार्ड एक्टन ने तो इस प्रकार की समानता और रूप को एवं अलंकारों के मायाजाल के विरुद्ध चेतावनी दी है। जेलीनेक का भी कथन है कि, “इस सिद्धांत को बिल्कुल अस्विकार कर दिया जाना चाहिए, अन्यथा इसमें जो कुछ सत्य है वह भी उनके असत्य में छिप जाएगा।”

सावयव सिद्धांत की प्रमुख रूप से निम्न आधारों पर आलोचना की जा सकती है :

  • समानता पूर्ण नहीं है
  • व्यक्ति का स्थान पूर्व निर्धारित नहीं होता
  • जन्म, विकास तथा मृत्यु के नियम भिन्न है
  • राज्य के कार्य क्षेत्र की संतोषजनक व्याख्या नहीं

सावयव सिद्धांत का महत्व

Importance of Organic Theory : उपर्युक्त आलोचनाओं से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सावयव सिद्धांत का कोई मूल्य और महत्व नहीं है। वस्तुतः राज्य के स्वरूप तथा व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक संबंध को समझने के लिए सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है।

गैटल ने इस सिद्धांत में निम्नलिखित गुण बताए हैं :

  • यह सिद्धांत राज्य के ऐतिहासिक विकास का महत्व बतलाता है।
  • इस सिद्धांत के अनुसार राज्य एक कृत्रिम वस्तु नहीं अपितु उसका विकास हुआ है।
  • यह सिद्धांत इस तथ्य पर विश्वास करता है कि मनुष्य स्वभावतया एक सामाजिक प्राणी है और उसकी सामाजिक प्रवृत्ति ही राज्य को जन्म देती है।
  • यह राज्य और नागरिकों की पारस्परिक निर्भरता पर बल देता है। यह सामाजिक जीवन की मौलिकता पर जोर देता है।
  • यह सिद्धांत इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि समाज केवल बिखरे हुए व्यक्तियों के समूह मात्र ही नहीं है। समाज के सभी व्यक्ति एक दूसरे से संबंधित हैं और सब मिलकर समाज पर निर्भर करते हैं। इस सिद्धांत का महत्व इस विचार में निहित है कि सबके कल्याण में ही व्यक्ति का कल्याण निहित है।

निष्कर्ष (Conclusion)

राज्य के स्वरूप को शरीर रूप में प्रतिपादित करने वाले उपयुक्त विद्वानों के विचारों में हमें दो प्रकार की विचारधाराओं के दर्शन होते हैं। प्रथम विचारधारा वह है जिसे अपनाते हुए प्लेटो, अरस्तु, सिसरो और जॉन ऑफ सैलिसबरी आदि विचारकों ने राज्य को शरीर के समान बताया है।

दूसरी विचारधारा ब्लंटशली और प्रमुख रूप से स्पेंसर द्वारा अपनाई गई है जिसके अनुसार राज्य न केवल शरीर के समान वरन सचमुच एक शरीर ही है।

इनमें से प्रथम विचारधारा को स्वीकार करते हुए यह तो माना जा सकता है कि राज्य मानव शरीर के समान है लेकिन राज्य मानव शरीर के समान ही है; लेकिन राज्य मानव शरीर ही है, इस बात को स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है।

वास्तव में राज्य और शरीर के बीच समानता को अधिक महत्व देना ठीक नहीं है।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. राज्य के आंगिक सिद्धांत का प्रतिपादक कौन है?

    उत्तर: यद्यपि सावयव सिद्धांत अत्यंत पुराना है और प्लेटो, अरस्तु, सिसरो, हॉब्स, रूसो आदि अनेक विचारकों की धारणाओं में इसका प्रतिपादन हुआ है, लेकिन सावयव सिद्धांत का सबसे विशद विवेचन इंग्लैंड के विचारक हरबर्ट स्पेंसर ने अपनी पुस्तक ‘समाजशास्त्र के सिद्धांत’ में किया है और इसी प्रकार सावयव सिद्धांत स्पेंसर के नाम के साथ संबंध है।

  2. ऑर्गेनिक सिद्धांत के अनुसार राज्य एक है-

    उत्तर : ऑर्गेनिक सिद्धांत के अनुसार राज्य को एक मानव शरीर का स्वरूप माना गया है। इस सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग होते हैं और वह उनसे मिलकर बनता है उसी प्रकार राज्य के विभिन्न अंग होते हैं और वह उनसे मिलकर बनता है।

  3. समाज एक सावयव है यह कथन किसका है?

    उत्तर : ‘समाज एक सावयव है’ समाज के विषय में यह कथन हर्बर्ट स्पेंसर का हैं।

My name is Mahendra Kumar and I do teaching work. I am interested in studying and teaching competitive exams. My qualification is B.A., B.Ed., M.A. (Pol.Sc.), M.A. (Hindi).

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