अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के गुण व दोष

इस आर्टिकल में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के गुण और दोष के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के गुण

(1) शासन में स्थिरता (Stability in Governance)

इस शासन व्यवस्था में शासन की स्थिरता बनी रहती है क्योंकि कार्यपालिका का प्रधान एक निश्चित अवधि के लिए निर्वाचित होता है। व्यवस्थापिका का निर्माण भी एक निश्चित समय के लिए होता है और इस अवधि के पूर्व दोनों में से किसी को साधारणतया अपदस्थ नहीं किया जा सकता है।

इस व्यवस्था के अंतर्गत शासन में स्थायित्व होने के कारण दीर्घकालीन योजना बनाकर ठीक प्रकार से प्रशासनिक कार्य किए जा सकते हैं।

संसदीय शासन प्रणाली का मुख्य गुण उत्तरदायित्व है तो अध्यक्षीय शासन प्रणाली का मुख्य गुण शासन में स्थिरता है।

(2) संकटकाल में उपयुक्त (Suitable in Emergency)

अध्यक्षात्मक शासन में एक ही व्यक्ति के हाथों में समस्त शक्तियों का जो केंद्रीकरण होता है उसके परिणामस्वरूप संकटकाल में यह पद्धति बहुत उपयोगी सिद्ध होती है। ऐसे संकटकालीन अवसरों पर राष्ट्रपति स्वयं विवेक से अविलंब प्रभावशाली निर्णय लेकर कार्यवाही कर संकट का सफलतापूर्वक सामना कर सकता है।

(3) राजनीतिक दलबंदी का अभाव

यद्यपि अध्यक्षात्मक शासन में भी संगठित राजनीतिक दल होते हैं, किंतु ये दल कार्यपालिका प्रधान के निर्वाचन के समय ही अधिक सक्रिय रहते हैं और चुनावों के बाद दल निष्क्रिय हो जाते हैं।

कार्यपालिका प्रधान का निश्चित कार्यकाल होने के कारण कार्यपालिका प्रधान के चुनाव हो जाने के बाद दलबंदी की भावना प्रकट होने के विशेष अवसर नहीं रहते। निर्वाचन हो जाने पर राष्ट्रपति राजनीतिक दलबंदी की भावना से पृथक होकर शासन कर सकता है। इस प्रकार अध्यक्षात्मक शासन में संघात्मक शासन की अपेक्षा दलबंदी की बुराइयां कम हो जाती है।

(4) प्रशासन में एकता (Unity in Administration)

इस शासन व्यवस्था में संपूर्ण शक्ति राष्ट्रपति के हाथ में होती है और इसके कार्यों को व्यवस्थापिका की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। प्रशासनिक एकता के परिणामस्वरूप अधिक शक्तिशाली रूप में कार्य कर सकता है।

(5) शासन में दक्षता (Efficiency in Governance)

अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका से स्वतंत्र होने के कारण अधिक साहस और स्वतंत्रता के साथ कर सकती है।

मंत्री लोगों को व्यवस्थापिका के कार्यों में भाग लेने और लोकप्रिय होने के लिए समय खर्च नहीं करना पड़ता। इसलिए वे अपनी समस्त शक्ति और समय उपयोग अपने शासन कार्य में कर सकते हैं।

राष्ट्रपति विभिन्न विभागों में विशेष योग्यता व अनुभव प्राप्त व्यक्ति को मंत्री पद पर नियुक्त करने के लिए स्वतंत्र होता है जिससे प्रशासनिक कार्य में अधिक कुशलता लायी जा सकती है।

(6) शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का पालन

यह शासन पद्धति लोकतंत्र के उस सिद्धांत के अधिक अनुकूल है, जिसे शक्ति पृथक्करण सिद्धांत कहते हैं, क्योंकि इसमें व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका एक दूसरे से स्वतंत्र रहती है और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा होती है।

अध्यक्षात्मक शासन में शक्ति पृथक्करण के दोषों को दूर करने के लिए राजनीतिक दल एक प्रमुख साधन है।

(7) योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों के मंत्रिमंडल का निर्माण संभव

संसदात्मक शासन के अंतर्गत मंत्रिपरिषद का निर्माण करने में प्रधानमंत्री को अनेक बातें ध्यान में रखनी होती है लेकिन अध्यक्षात्मक शासन के अंतर्गत राष्ट्रपति जिन किन्हीं व्यक्तियों को मंत्रिपरिषद में शामिल करना चाहे, वह उन व्यक्तियों को मंत्रिपरिषद में शामिल कर सकता है।

(8) विशाल राज्यों के लिए उपयुक्त

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली उन देशों के लिए अधिक उपयुक्त रहती है जिनमें भाषा, संस्कृति, धर्म आदि के आधार पर विविधता पाई जाती है। ऐसे विविधता वाले देशों में अध्यक्षीय प्रणाली एकता का संचार करती है।

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के दोष

(1) शासन में परिवर्तनशीलता का अभाव

इस शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका प्रधान का चुनाव एक निश्चित समय के लिए किया जाता है और निश्चित अवधि के पूर्व दोनों में से किसी को भी अपने पद से नहीं हटाया जा सकता है। यदि इस अवधि के बीच कुछ ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाए जिनके कारण शासन में परिवर्तन करना आवश्यक हो तो ऐसा करना संभव नहीं हो पाता है। इसके विपरीत संसदात्मक शासन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किए जा सकते हैं।

इस संबंध में बेजहॉट ने लिखा है, “आप पहले से ही अपने शासन को स्थिर कर लेते हैं और चाहे वह अनुकूल हो या न हो, चाहे वह ठीक प्रकार से काम करें या न करें, चाहे आप उसे चाहें या ना चाहें, कानून के अनुसार आपको उसे कायम रखना होगा।”

(2) उत्तरदायित्व की अवहेलना

इस शासन व्यवस्था में प्रशासनिक बुराइयों के लिए व्यवस्थापिका अथवा प्रशासन में से किसी एक को ही निश्चित रूप से उत्तरदाई नहीं ठहराया जा सकता है।

व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों ही स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं और यदि प्रशासन में कोई बुराई उत्पन्न हो जाती है तो इसके लिए व्यवस्थापिका, कार्यपालिका को और कार्यपालिका, व्यवस्थापिका को उत्तरदायी ठहराती है।

उत्तरदायित्व का अनेक अंगों में विभाजन के कारण यह तय करना दुष्कर हो जाता है कि शासन की सफलता और असफलता का श्रेय किसे दिया जाए।

इस प्रकार सरकार के इन दोनों अंगों में एक दूसरे पर उत्तरदायित्व डालने की प्रवृत्ति रहती है और उत्तरदायित्व की इस अवहेलना से राज्य के हितों को हानि पहुंचती है।

(3) व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग का अभाव

व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग का अभाव अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था का प्रमुख दोष है। इस शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग और सामंजस्य का अभाव है। प्राणी शरीर के समान ही प्रशासन में भी एक प्रकार की आंगिक एकता पाई जाती है और प्रशासन कार्य ठीक प्रकार से करने के लिए विभिन्न विभागों में सहयोग अत्यंत आवश्यक है।

इस प्रकार के सहयोग के अभाव में कानून निर्माण और प्रशासन दोनों ही कार्य ठीक प्रकार से नहीं हो पाते।अध्यक्षात्मक शासन में तो अनेक बार सरकार के विभागों में सहयोग के स्थान पर परस्पर उग्र विरोध दिखाई देता है जो शासन के लिए अत्यंत हानिकारक होता है।

अमेरिकी अध्यक्षात्मक शासन के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति स्वतंत्र व सुदृढ़ वैदैशिक नीति पर नहीं चल सकता क्योंकि व्यवस्थापिका उसके कार्यों में अवरोध डालती है। 1919 में राष्ट्रपति विल्सन द्वारा की गई ‘वर्साय की संधि’ को सीनेट ने ठुकरा दिया था।

(4) निरंकुशता का भय (Fear of Autocracy)

इस शासन के अंतर्गत कार्यपालिका प्रधान का कार्यकाल निश्चित होता है। एक बार निर्वाचित होने के पश्चात राष्ट्रपति न तो जनता के और न ही जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के नियंत्रण में रहता है। तथा कार्यपालिका अपनी नीति व कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति भी उत्तरदायी नहीं होती।

इस प्रकार राष्ट्रपति मनमाने तरीके से कार्य करते हुए निरंकुशता की प्रवृत्ति को अपना सकता है।

(5) प्रशासनिक एकता के सिद्धांत का विरोध

वर्तमान समय में प्रशासन के संबंध में ‘आंगिक सिद्धांत’ (Organic Theory) का प्रतिपादन किया जाता है, जिसके अनुसार प्रशासन में भी मानवीय शरीर के समान ही एकता और अंगों की परस्पर निर्भरता होती है, लेकिन अध्यक्षात्मक शासन इस सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि इसके अंतर्गत व्यवस्थापिका और कार्यपालिका एक दूसरे से संबंध नहीं रखती है।

(6) कम राजनीतिक शिक्षा

संसदात्मक शासन में मंत्रिपरिषद के सदस्यों से व्यवस्थापिका में प्रश्न पूछे जाते हैं, विभिन्न विभागों के कार्यों की आलोचना की जाती है और मंत्रिपरिषद के सदस्य इन आलोचनाओं का उत्तर देते हैं। इन सब बातों में जनता की भी रुचि रहती है और जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती है।

लेकिन अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के बीच संबंध न होने के कारण जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होने के अवसर बहुत कम हो जाते हैं।

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के गुण व दोष

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• अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
  1. अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति राज्य और सरकार दोनों का ही प्रधान होता है। कैसे?

    उत्तर : अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में देश का प्रमुख और सरकार का प्रमुख जनता द्वारा प्रत्यक्ष मतदान से निर्वाचित, विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होना।

  2. किस देश का कार्यपालिका प्रधान सबसे अधिक शक्तिशाली प्रशासक है ?

    उत्तर : अमेरिका का कार्यपालिका प्रधान सबसे अधिक शक्तिशाली प्रशासक है।

  3. अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था का प्रमुख दोष क्या है?

    उत्तर : व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग का अभाव अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था का प्रमुख दोष है। इस शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग और सामंजस्य का अभाव है।

My name is Mahendra Kumar and I do teaching work. I am interested in studying and teaching competitive exams. My qualification is B.A., B.Ed., M.A. (Pol.Sc.), M.A. (Hindi).

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