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नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत : शक्ति पृथक्करण का आधुनिक रूप

इस आर्टिकल में शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के आधुनिक रूप नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।

नियंत्रण और संतुलन का सिद्धांत क्या है

लोकतंत्र में नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था से आशय यह है कि सरकार के विभिन्न अंग एक दूसरे की शक्ति पर इस प्रकार से नियंत्रण स्थापित करें की शक्तियों का संतुलन बना रहे और कोई भी एक विभाग निरंकुश शक्तियों का प्रयोग ना कर सके।

दूसरे शब्दों में, विभिन्न विभाग पृथक हो तो सकते है, पर स्वतंत्र नहीं। इस प्रकार की व्यवस्था में सरकार के विभिन्न विभाग एक दूसरे की शक्तियों को इस प्रकार से नियंत्रित और सीमित करते हैं कि कोई एक विभाग बहुत अधिक शक्तियां अपने हाथ में लेकर नागरिक स्वतंत्रता और समस्त व्यवस्था के लिए संकट न बन जाए।

इस प्रकार नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत का उद्देश्य एवं आशय यह है कि शक्तियों को नियंत्रित करते हुए शासन व्यवस्था में संतुलन की स्थिति को बनाए रखना।

शक्तियों का पूर्ण पृथक्करण न तो संभव है और न ही वांछनीय। शासन के विभिन्न अंगों का पारस्परिक संबंध उपयोगी और आवश्यक है।

मैकाइवर ने ठीक कहा है कि, “समस्या का हल शक्ति पृथक्करण नहीं वरन इन तीनों में इस ढंग से संबंध स्थापित करना है कि उत्तरदायित्व का योग्यता से संबंध विच्छेद ना हो जाए।”

इस बात को दृष्टि में रखते हुए वर्तमान समय में शक्ति पृथक्करण सिद्धांत ने एक नवीन रूप ग्रहण कर लिया है, जिसे नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत के नाम से जाना जाता है।

नियंत्रण तथा संतुलन की व्यवस्था के अंतर्गत ऐसा प्रबंध किया जाता है कि कानून निर्माण कार्य प्रमुख रूप से व्यवस्थापिका करें लेकिन व्यवस्थापिका की इस विधायी शक्ति पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के द्वारा नियंत्रण रखा जाए।

इस संबंध में ऐसी व्यवस्था की जाती है कि व्यवस्थापिका द्वारा पारित विधायकों पर कार्यपालिका प्रधान के हस्ताक्षर होने पर ही उन विधायकों को कानून के रूप में मान्यता प्राप्त होगी। न्यायपालिका द्वारा न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के आधार पर व्यवस्थापिका की विधायी शक्ति पर नियंत्रण रखा जाता है।

इसी प्रकार शासन व्यवस्था का संचालन प्रमुख रूप से कार्यपालिका का कार्य है लेकिन कार्यपालिका की प्रशासनिक शक्तियों पर व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का नियंत्रण होना चाहिए। इस प्रसंग में कुछ लोकतंत्रीय देशों में व्यवस्था है कि कार्यपालिका अनेक प्रमुख पदों के लिए व्यक्तियों का चयन करती है, लेकिन व्यवस्थापिका द्वारा इन नियुक्तियों की पुष्टि आवश्यक है।

इसके अतिरिक्त संसदीय व्यवस्था में व्यवस्थापिका प्रश्नों, निंदा प्रस्तावों, काम रोको प्रस्ताव तथा अविश्वास प्रस्ताव के आधार पर कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है और आवश्यक होने पर उसे पदच्युत कर सकती है।

अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में भी सामान्यतया यह व्यवस्था होती है की व्यवस्थापिका जांच समिति आयोग की नियुक्ति कर कार्यपालिका के कार्यों की जांच कर सके।

इसी प्रकार यदि कार्यपालिका द्वारा लिया गया कोई प्रशासनिक निर्णय या कार्य यदि संविधान, कानून अथवा स्वयं कार्यपालिका द्वारा निर्मित नियमों के प्रतिकूल हो तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के दबाव से स्वतंत्र होनी चाहिए।

अतः न्यायपालिका पर व्यवस्थापिका अथवा कार्यपालिका उस रूप में नियंत्रण तो नहीं रखती, जिस रूप में सरकार के अन्य अंग व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर नियंत्रण रखते हैं, लेकिन न्यायपालिका पर भी सामान्यतया कुछ परोक्ष नियंत्रण की व्यवस्था अवश्य ही होती है।

उदाहरण के लिए भारत और अमेरिका आदि देशों में व्यवस्थापिका महाभियोग के आधार पर न्यायाधीशों को पदच्युत कर सकती है। महाभियोग के प्रसंग में संविधान के अंतर्गत ही बहुत कठिन और जटिल प्रक्रिया को अपनाया जाता है, जिससे व्यवस्थापिका द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग न किया जा सके।

नियंत्रण एवं संतुलन सिद्धांत पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस सिद्धांत का उद्देश्य शासन को मर्यादा में रखना है, शासन की कार्यकुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव डालना इस सिद्धांत का उद्देश्य नहीं है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का परीक्षण

नियंत्रण एवं संतुलन सिद्धांत का प्रमुख उदाहरण अमेरिका की शासन व्यवस्था है। नियंत्रण और संतुलन अमेरिका की सरकार का प्रमुख अंग है। अमेरिकी संविधान के निर्माताओं ने शासन को मर्यादित रखने और व्यक्ति स्वातंत्र्य की रक्षा हेतु शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाया, लेकिन इसके साथ ही वह शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की सीमाओं से भी परिचित थे।

शक्ति पृथक्करण के सबसे प्रमुख समर्थक मेडिसन ने अपने पत्र ‘Federalist’ में लिखा था कि, “शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का आशय यह नहीं है कि व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं रहे।”

उन्होंने आगे लिखा है कि, “जब तक यह तीनों अंग एक दूसरे से संबंध नहीं किए जाएंगे और इस तरह से मिला नहीं दिए जाएंगे कि एक का नियंत्रण दूसरे पर स्थापित हो जाए, तब तक स्वतंत्र सरकार कदापि नहीं हो सकती है।”

इसके अतिरिक्त संविधान निर्माताओं द्वारा यह भी सोचा गया है कि शक्ति विभाजन के सिद्धांत को पूर्ण सीमा तक अपनाने पर शासन का प्रत्येक अंग अपने निश्चित क्षेत्र में असीमित शक्तियां प्राप्त कर शक्ति का दुरूपयोग कर सकता है।

अतः उनके द्वारा यह निश्चय किया गया कि तीनों अंगों की शक्तियां अलग-अलग करने के साथ-साथ ऐसी व्यवस्था कर दी जाए कि एक अंग दूसरे अंग को नियंत्रित करता रहे और ऐसा शक्ति संतुलन स्थापित कर दिया जाए कि कोई भी अंग बहुत अधिक शक्तिशाली ना हो सके। नियंत्रण और संतुलन अमेरिकी संविधान की प्रमुख विशेषता है।

इस प्रकार एलेग्जेंडर हैमिल्टन के शब्दों में, “शक्ति की प्रतिद्वंदी शक्ति” (Power as the Rival of Power) का निर्माण किया गया और शक्ति विभाजन सिद्धांत के सहायक के रूप में एवं उसे व्यवहारिक रूप प्रदान करने हेतु नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को अपनाया गया।

बॉयल के शब्दों में, “नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था सोच समझकर की गई है जिससे शासन कि कोई शाखा पागलपन न कर बैठे।”

नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को अपनाने का रूप यह है कि शासन के तीनों अंगों (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) में से प्रत्येक अंग पर अन्य दो अंगो के द्वारा नियंत्रण रखते हुए ऐसा शक्ति संतुलन स्थापित किया जाता है कि कोई भी अंग बहुत अधिक शक्तिशाली ना हो जाए।

नियंत्रण और संतुलन के इस सिद्धांत को अमेरिकी कांग्रेस और राष्ट्रपति के पारस्परिक संबंधों में अधिक प्रमुखता के साथ अपनाया गया और न्यायपालिका के संबंध में स्वाभाविक रूप से अपेक्षाकृत सीमित रूप में। कानून निर्माण की शक्ति कांग्रेस को प्राप्त है, लेकिन कांग्रेस की इस शक्ति पर राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय का प्रतिबंध है।

कांग्रेस द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति को ‘विलंबकारी निषेधाधिकार’ और ‘जेबी निषेधाधिकार’ (Pocket Veto) प्राप्त होता है। व्यवहार के अंतर्गत राष्ट्रपति के द्वारा कांग्रेस को संदेश भेजकर, राष्ट्र के नाम अपील प्रसारित करके, कांग्रेस सदस्यों पर विभिन्न अनुग्रह करके एक विशेष राजनीतिक दल के नेता के रूप में भी कानून निर्माण के कार्य को प्रभावित किया जा सकता है।

कांग्रेस को कानून निर्माण की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय से भी प्रतिबंधित होती है। संविधान की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ऐसे कानूनों को अवैध घोषित किया जा सकता है जो उनके विचार में संविधान के प्रतिकूल हैं। इस प्रकार कांग्रेस को कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त हैं, लेकिन इस संबंध में उसके द्वारा मनमानी नहीं की जा सकती है।

इसी प्रकार राष्ट्रपति देश की कार्यपालिका का प्रधान है, लेकिन वह प्रशासनिक क्षेत्र में मनमानी करते हुए तानाशाह नहीं बन सकता। कांग्रेस द्वारा अनेक रूपों में राष्ट्रपति की शक्ति पर अंकुश रखा जाता है। सर्वप्रथम राष्ट्र की वित्त पर कांग्रेस का अधिकार है और कांग्रेस राष्ट्रपति द्वारा चाहे गए धन की स्वीकृति देने से इंकार कर राष्ट्रपति की शक्ति पर अंकुश लगा सकता है। व्यवहार में अनेक बार कांग्रेस ने अपनी इस शक्ति का प्रभावशाली रूप से प्रयोग किया है।

इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति देश की सेना का अध्यक्ष है और वह परराष्ट्र संबंधों का संचालन करता है, लेकिन कांग्रेस राष्ट्रपति की शक्ति पर दो रूपों में नियंत्रण रखती है – प्रथम संविधान के अनुसार यह आवश्यक है कि राष्ट्रपति द्वारा की गई युद्ध की घोषणा की पुष्टि कांग्रेस करें।

इसी प्रकार राष्ट्रपति द्वारा किए गए समझौते और संधि की पुष्टि सीनेट के द्वारा अपने दो तिहाई बहुमत से की जानी आवश्यक है, इस पुष्टि के अभाव में संधि और समझौते व्यर्थ हो जाते हैं। यह सर्वविदित है कि कांग्रेस द्वारा पुष्टि प्रदान न किए जाने के कारण ही राष्ट्रपति विल्सन अमेरिका को राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं बना सके थे।

इसी प्रकार राष्ट्रपति को बड़े-बड़े पदों पर नियुक्तियां करने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का दुरुपयोग न कर सके इसके लिए यह व्यवस्था की गई है कि नियुक्तियों पर सीनेट की स्वीकृति आवश्यक है। कांग्रेस के द्वारा राष्ट्रपति पर महाभियोग भी लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति की इस शक्ति को न्यायपालिका द्वारा नियंत्रित किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति के कार्यों का सर्वेक्षण कर सकता है और यदि वे कार्य संविधान की व्यवस्था के प्रतिकूल हो तो उन्हें अवैध घोषित कर सकता है।

न्यायपालिका पर भी व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के द्वारा नियंत्रण रखा जाता है। कांग्रेस के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या और उनका वेतन निश्चित किया जाता है और राष्ट्रपति सीनेट की सहमति से न्यायाधीशों को नियुक्त करता है। कांग्रेस के द्वारा संघीय न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सीमित किया जा सकता है और कांग्रेस महाभियोग के आधार पर न्यायाधीशों को पदच्युत कर सकती है।

इसी प्रकार के शासन के तीनों एक-दूसरे को नियंत्रित करते हुए शक्ति संतुलन स्थापित करते हैं। इसी बात को लक्ष्य करते हुए सन् 1941 में जॉन एडम्स ने अपने पत्र में जॉन टेलर को लिखा था कि, “आरंभ से अंत तक अमेरिकी संविधान में एक अंग दूसरे अंग पर प्रतिबंध के रूप में बना हुआ है।”

ऑग और रे लिखते हैं कि, “अमेरिकी शासन का कोई लक्षण इतना प्रमुख नहीं है जितना कि नियंत्रण और संतुलन की धारणा के साथ अपनाया गया शक्ति विभाजन सिद्धांत।”

1972 -74 के वर्षों में वाटर गेट कार्रवाई के संबंध में और न्यायपालिका द्वारा जिस प्रकार से कार्यवाही की गई और अंततोगत्वा निक्सन को त्यागपत्र के लिए बाध्य किया गया, वह नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत का अत्यधिक संजीव उदाहरण है।

शक्ति पृथक्करण और नियंत्रण एवं संतुलन सिद्धांत का प्रभाव कम होना

एक अन्य बात यह है कि वर्तमान समय में अमेरिकी शासन व्यवस्था के अंतर्गत शक्ति पृथक्करण और नियंत्रण तथा संतुलन के सिद्धांत का प्रभाव पर्याप्त सीमा तक कम हो गया है।

अमेरिकी शासकों द्वारा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में परस्पर नियंत्रण के स्थान पर उसमें सद्भाव का औचित्य और उसकी आवश्यकता अनुभव की गई और वर्तमान समय में ‘सीनेट का सद्भाव’ (Senatorial Courtesy) जैसी परंपराओं और राजनीतिक दलों जैसी व्यवस्था ने शासन के इन दोनों अंगों के बीच सहयोग और सद्भाव उत्पन्न करने का कार्य किया है।

संकटकाल में तो नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत का पालन होने की अपेक्षा उनकी अवहेलना ही अधिक देखी गई है और राष्ट्रपति के हाथों में बहुत कुछ सीमा तक शक्तियों का केंद्रीयकरण हो जाता है।

संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत व्यवहार में नियंत्रण तथा संतुलन

संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत व्यवहार में दो स्थितियां हो सकती है। प्रथम, व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन में एक राजनीतिक दल को स्पष्ट और पर्याप्त बहुमत प्राप्त हो और एक ही राजनीतिक दल की सरकार बने।

द्वितीय स्थिति वह है जिसमें किसी एक राजनीतिक दल को व्यवस्थापिका और विशेष रूप से व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन में स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तथा इस कारण मिली जुली सरकार का निर्माण हो। मिली जुली सरकार की स्थिति अपेक्षाकृत कमजोर होती है तथा ऐसी सरकार को व्यवस्थापिका में अपना बहुमत बनाए रखने के लिए निरंतर सजग रहना होता है।

प्रथम स्थिति के अंतर्गत यदि प्रधानमंत्री पद पर प्रभावशाली व्यक्तित्व का व्यक्ति आसीन हो और उसे अपने राजनीतिक दल में यदि निर्विवाद नेतृत्व की स्थिति प्राप्त हो, प्रधानमंत्री पद में शक्तियों का बहुत अधिक केंद्रीकरण हो जाता है।

द्वितिय स्थिति अर्थात मिलीजुली सरकार या अल्पमत सरकार की स्थिति में नियंत्रण तथा संतुलन का सिद्धांत प्रभावी होता है तथा किन्हीं परिस्थितियों में तो कार्यपालिका पर व्यवस्थापिका के नियंत्रण की व्यवस्था इतनी अधिक प्रभावी हो जाती है कि उनकी कार्यकुशलता को आघात पहुंचा सकता है।

नियंत्रण तथा संतुलन के सिद्धांत का अधिक प्रभावी होना भी नियंत्रण एवं संतुलन सिद्धांत की भावना के प्रतिकूल हैं।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. नियंत्रण और संतुलन का सिद्धांत क्या है

    उत्तर : नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत का आशय यह है कि सरकार के विभिन्न अंग एक दूसरे की शक्ति पर इस प्रकार से नियंत्रण स्थापित करें की शक्तियों का संतुलन बना रहे और कोई भी एक विभाग निरंकुश शक्तियों का प्रयोग ना कर सके।

  2. नियंत्रण और संतुलन किस देश की सरकार का प्रमुख अंग है?

    उत्तर : नियंत्रण और संतुलन अमेरिकी देश की सरकार का प्रमुख अंग है।

  3. नियंत्रण और संतुलन किस संविधान की विशेषता है?

    उत्तर : नियंत्रण और संतुलन अमेरिकी संविधान की प्रमुख विशेषता है।

  4. भारत में, न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण, किससे व्यादेशित है?

    उत्तर : भारत में, न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण, राज्य के नीति निर्देशक तत्व द्वारा व्यादेशित है।

My name is Mahendra Kumar and I do teaching work. I am interested in studying and teaching competitive exams. My qualification is B.A., B.Ed., M.A. (Pol.Sc.), M.A. (Hindi).

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