इस आर्टिकल में अधिकारों के विभिन्न सिद्धांत जैसे प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत, कानूनी अधिकारों का सिद्धांत, अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत, अधिकारों का समाज कल्याण सिद्धांत, अधिकारों का उदारवादी, व्यक्तिवादी सिद्धांत आदि के बारे में सविस्तार व्याख्या की गई है।
प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत (Natural Theory of Rights)
अधिकारों के संबंध में यह सिद्धांत सबसे प्राचीन है और इस का चलन यूनानियों से है। पश्चिमी दुनिया में अधिकारों की पहली हिमायत था, जिसका आधार था मनुष्य जन्मत: कुछ अधिकारों का पात्र है।
प्राकृतिक अधिकारों के विचार का इस्तेमाल राज्य/ सरकारों के द्वारा स्वेच्छाचारी शक्ति के प्रयोग का विरोध करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए किया जाता। इस सिद्धांत के आधार पर आज अनेक देशों में इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों (fundamental rights) में स्थान दिया है।
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा हॉब्स, लॉक, रूसो, मिल्टन, वाल्तेयर, टॉमस पेन, ब्लैकस्टोन आदि विद्वानों ने प्रतिपादित की।
* सामाजिक समझौता सिद्धांत (Social Contract Theory) के प्रतिपादक (हॉब्स, लॉक, रूसो) प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थक रहे हैं।
हॉब्स ने ‘जीवन के अधिकार’ (स्वरक्षा के अधिकार) को प्राकृतिक अधिकार माना जिसका हनन राज्य का पशुता संपन्न शासक भी नहीं कर सकता। रूसो के अनुसार स्वतंत्रता और समानता ईश्वर का वरदान है।
प्राकृतिक अधिकारों के संबंध में जॉन लॉक का नाम विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। लॉक ने जीवन स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अधिकारों को प्राकृतिक अधिकार माना है। यदि राज्य इन प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाता तो लॉक के मत में इसके प्रति विद्रोह करना उचित होगा।
- इस सिद्धांत के अनुसार मानवीय अधिकार पूर्ण तथा प्राकृतिक और जन्म सिद्ध है।
- इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार जन्मजात, निरपेक्ष और स्वयं सिद्ध है।
- इस सिद्धांत के समर्थक अधिकार व्यक्ति के नैतिक व्यक्तित्व में अंतर्निहित है।
- इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति के अधिकारों पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।
- इस सिद्धांत के आधार पर अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम तथा फ्रांस के मानव अधिकारों की घोषणा 1789 आधारित था।
सिसरो के अनुसार, “व्यक्ति के अधिकार प्रकृति की देन है, इन्हें सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है।”
स्पेंसर के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकारों को मनोवैज्ञानिक रूपक के साथ मिलाया।”
ग्रीन, बेंथम, गिलक्राइस्ट प्राकृतिक अधिकारों के विरोधी थे। बेंथम तो प्राकृतिक अधिकारों का घोर विरोधी था। बेंथम ने प्राकृतिक अधिकारों का वर्णन ‘बैसाखियों पर बकवास’ के रूप में किया है।
कानूनी अधिकारों का सिद्धांत
अधिकारों के कानूनी सिद्धांत का सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकार ऑस्टिन (Austin) है, उसका कहना है कि प्रत्येक अधिकार चाहे ईश्वरीय, वैज्ञानिक अथवा नैतिक हो एक सापेक्ष कर्तव्य पर निर्भर है अथवा वह कर्तव्य जो उस पक्ष अथवा उन पक्षों में निहित है जिनमें अधिकार का निवास है, और स्पष्ट तथा वह सापेक्ष कर्तव्य मुख्य रूप से कर्तव्य नहीं होगा। यदि इसके आरोपण को प्रभावी बनाने वाला कानून बल द्वारा संपुष्ट न हो।
कानूनी अधिकारों का सिद्धांत के समर्थक बेंथम, ऑस्टिन, हॉब्स (सर्वप्रथम), होलैंड, सालमण्डा आदि है।
बेंथम के अनुसार, “उचित अर्थ में अधिकार विधि की कृति है।”,’विधि के विरुद्ध कोई अधिकार नहीं’।
- कानूनी अधिकारों का सिद्धांत प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के विपरीत है।
- कानूनी अधिकारों का सिद्धांत अधिकारों को कृत्रिम (Artificial) मानता है।
- कानूनी अधिकारों के सिद्धांत के अनुसार राज्य ही अधिकारों का स्त्रोत है।
- अधिकारों के कानूनी सिद्धांत के अनुसार अधिकार राज्य की इच्छा और कानून के परिणाम होते हैं।
- अधिकारों के कानूनी सिद्धांत के अनुसार सामाजिक हित में अधिकारों को प्रतिबंधित किया जा सकता है यानी अधिकार निरपेक्ष (Absolute) नहीं है।
- कानून के परिवर्तन के साथ ही अधिकारों का रूप भी परिवर्तन होता रहता है।
- इसे वास्तविक सिद्धांत भी कहा जाता है। इसके मापदंड का आधार नैतिक न होकर वास्तविक है।
अधिकारों के कानूनी सिद्धांत के अनुसार अधिकारों के तीन प्रमुख पहलू :
- राज्य ही अधिकारों का स्त्रोत है।
- राज्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।
- अधिकार गतिशील होते हैं।
अधिकारों का आदर्शवादी / व्यक्तिवादी सिद्धांत
अधिकारों के आदर्शवादी/व्यक्तिवादी सिद्धांत के प्रमुख प्रवर्तक जर्मन विचारक काण्ट है। किंतु इसकी स्पष्ट व्याख्या हमें ग्रीन के विचारों में मिलती है। ग्रीन के अनुसार, “अधिकार मनुष्य के आंतरिक विकास की बाह्य अवस्थाएं हैं।”
अधिकारों के आदर्शवादी/व्यक्तिवादी सिद्धांत के प्रमुख समर्थक ग्रीन (मुख्य), क्रूज, हेनरीची, कॉण्ट, रुसो आदि है।
अधिकारों के आदर्शवादी/व्यक्तिवादी सिद्धांत को नैतिक सिद्धांत (Ethical Theory) भी माना जाता है। क्योंकि यह सिद्धांत अधिकारों के नैतिक पक्ष को महत्वपूर्ण मानता है। इस सिद्धांत के अनुसार अधिकारों के अस्तित्व का उद्देश्य एक आदर्श व्यक्तित्व के विकास की प्राप्ति माना गया है।
इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति कुछ अधिकार नहीं वरन् प्राकृतिक शक्तियां लेकर उत्पन्न होता है। अधिकारों का अस्तित्व व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर आश्रित कर देने के कारण इसे व्यक्तिवादी सिद्धांत भी कहा जाता है।
इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति स्वयं में साध्य है और अन्य किसी के उत्कृर्ष का साधन मात्र नहीं है। एक व्यक्ति के अधिकारों पर केवल वे ही प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए जो अन्य व्यक्तियों के विकास हेतु आवश्यक हो।
ग्रीन के अनुसार, “यह अत्यंत आवश्यक है कि मनुष्य के कार्य नैतिक दृष्टि से पूर्ण हो।”
अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत
अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धांत के अनुसार अधिकार इतिहास के परिणाम होते हैं। अधिकारों का निर्माण रीति-रिवाजों यानी प्रथा ही कालांतर में निखरकर अधिकारों का रूप लेती है।
यह सिद्धांत वास्तव में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में उभरा। इसके अनुसार अधिकार इतिहास की देन है। इतिहास से तात्पर्य रीति रिवाज तथा प्रथाओं से है। रीति रिवाज तथा प्रथाएं स्थिर होने पर अधिकार का रुप ले लेती है।
अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धांत के प्रमुख समर्थक एडमंड बर्क, हेनरी मेन, सेविग्नी, पुचा, कार्टर आदि है।
बर्क के अनुसार, “इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति का आधार अंग्रेजों के रीति रिवाजों पर आधारित अधिकार ही थे।”
प्रो. सुमनर के अनुसार, “अधिकार और कुछ नहीं केवल रीति-रिवाजों की उपज है।”
एडमंड बर्क के अनुसार, “फ्रांसीसी क्रांति का मुख्य कारण परंपरागत अधिकारों की सम्राट द्वारा उपेक्षा करना था।”
मैकाइवर का कहना है कि, “कानून युगों पुरानी प्रथा को एक वैज्ञानिक आज्ञा के रूप में राज्य की कार्यवाही होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।”
अधिकारों का समाज कल्याण सिद्धांत (लास्की थ्योरी ऑफ राइट्स)
अधिकारों के समाज कल्याण सिद्धांत की विस्तृत विवेचना लास्की ने की है। लास्की के अनुसार, “अधिकारों का औचित्य उसकी उपयोगिता के आधार पर आँका जाना चाहिए।”
लास्की ने उदारवादी और समाजवादी मूल्यों में समन्वय स्थापित करते हुए यह तर्क दिया कि राज्य को स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान करनी चाहिए। उसने सेवाधर्मी राज्य (Service State) का समर्थन करते हुए न्याय पूर्ण समाज की स्थापना पर बल दिया।
उदारवादी विचारक होने के नाते लास्की ‘स्वतंत्रता’ का प्रबल समर्थक था किंतु उनका मानना था कि सामाजिक आर्थिक समानता के बगैर स्वतंत्रता अधूरी है। उसका पूर्ण विश्वास था कि लोकतंत्रीय ढांचे के अंतर्गत उदारवादी और समाजवादी मूल्यों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।
एक बहुलवादी लेखक होने के कारण लास्की व्यक्ति के संबंधों को समाज की अनेक संस्थाओं से जुड़ा मानता है इसी आधार पर वह सत्ता के विकेंद्रीकरण की मांग करता है। लास्की के अनुसार, “आधुनिक राज्य का बेजोड़ विकेंद्रीकरण अधिकारों के आदर्श रूप का शत्रु है।”
लास्की के अनुसार एक न्याय पूर्ण समाज में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तीन तरह के अधिकार प्रदान किए जाते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए रोजगार का अधिकार आवश्यक है। पूंजीवाद के अत्याचार से बचने के लिए उसने ‘श्रमिकों के प्रबंध में भागीदारी’ का समर्थन किया।
एक उदारवादी विचारक होने के नाते लास्की ने सभी नागरिकों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहि। इसमें सरकार की आलोचना करने का अधिकार भी शामिल है जो लोकतंत्र (Democracy) का मुख्य आधार है।
लास्की ने उपयोगिता को ही अधिकार की कसौटी माना है। लास्की ने अपनी कृति ‘A Grammar of Politics’ में अधिकारों की अवधारणा पर विस्तार से टिप्पणी की और मुख्य बातें निम्न है :
- अधिकारों की अवधारणा समाज के संदर्भ में ही उदित होती है।
- राज्य को कुछ अधिकार अवश्य सुनिश्चित करने चाहिए।
- राज्य की सत्ता लोकतांत्रिक और विकेंद्रीत होनी चाहिए।
- कोई भी व्यक्ति समाज में सामाजिक भलाई के लिए कार्य करता है उसी के संदर्भ में वह अधिकारों का दावा कर सकता है और उनका औचित्य सिद्ध कर सकता है।
- राज्य संपूर्ण समाज के कल्याण की खातिर अधिकारों पर प्रतिबंध लगा सकता है। जब ये प्रतिबंध अनुचित हो जाते हैं तब राज्य अपनी नैतिकता खो देता है और राज्य का प्रतिरोध करना व्यक्ति का अधिकार नहीं बल्कि कर्तव्य हो जाता है।
अधिकारों का समाज कल्याण सिद्धांत मुख्यत उपयोगितावादी विचारक बेंथम, मिल, लास्की, रोस्कोपाउण्ड, चैफी आदि की देन है।
उपयोगितावादियों के अनुसार अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख ही एकमात्र ऐसा सिद्धांत है जिस पर अधिकार आधारित होते हैं। – बेंथम (Bentham)
इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार समाज की देन है। अधिकारों का अस्तित्व समाज कल्याण (social welfare) पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार कानून, रीति-रिवाज और अधिकार सभी को कल्याण के सामने झुकना चाहिए। और इन सब का उद्देश्य समाज कल्याण (social welfare) ही होना चाहिए।
वाइल्ड के अनुसार, “यदि समाज अधिकारों का निर्माता है, तो व्यक्ति कि कहीं भी रक्षा नहीं हो सकेगी और वह समाज की निरकुंश इच्छा के विरुद्ध अपील भी नहीं कर सकता।”
अधिकारों का उदारवादी सिद्धांत
- अधिकारों के उदारवादी सिद्धांत का जन्म यूरोपीय समाजों में पोप, धर्म, चर्च, राजा एवं सामंतों की बढ़ती निरंकुशता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में हुआ।
- अधिकारों के उदारवादी सिद्धांत के प्रमुख समर्थक लॉक, मिल, मैकाइवर, माण्टेस्क्यू, थॉमस पेन, लास्की एवं ग्रीन है।
- यह सिद्धांत निरंकुश सरकारों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया स्वरुप है।
- इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार व्यक्ति के होते हैं, समाज के नहीं।
- यह सिद्धांत अधिकारों को स्वतंत्रता का ही रूप मानते हैं।
- यह सिद्धांत सामाजिक हित की अपेक्षा व्यक्ति के हित की बात करते हैं।
- इस सिद्धांत ने राजनीतिक एवं नागरिक अधिकारों को आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है।
- UNO महासभा द्वारा ‘मानव अधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा पत्र 1948’ उदारवादी दृष्टिकोण पर आधारित है।
- विभिन्न देशों {भारत भी} के संविधानों में जो अधिकार दिए गए हैं, इन्हीं विचारधारा एवं धारणाओं पर आधारित है।
- उदारवाद के अनुसार अधिकार की प्रकृति वर्ग चरित्र की है।
- उदारवाद अधिकारों को स्थायी मानता है।
- उदारवाद अधिकार व कर्तव्य को अलग-अलग मानता है।
- उदारवाद के अनुसार अधिकारों पर सामान्य हित में अंकुश लगाया जा सकता है।
- उदारवाद नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों पर बल देता है।
अधिकारों का मार्क्सवादी सिद्धांत
- अधिकारों के मार्क्सवादी सिद्धांत का प्रतिपादन : मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन ने किया।
- यह उदारवादियों के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया स्वरुप विकसित हुआ।
- निजी संपत्ति के अधिकार की कड़ी आलोचना की।
- उत्पादन के साधनों का सामाजिकरण किया।
- राज्य को एक वर्गीय संस्था माना जो शासक वर्ग के शोषण का साधन।
- मार्क्स और एंगेल्स अधिकारों का अर्थ कर्तव्य संसार में ढूंढते हैं।
- यह सिद्धांत व्यक्ति के अधिकारों को सामाजिक संबंधों में देखता है।
- मार्क्सवाद अधिकारों को ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज मानता है।
- मार्क्सवाद के अनुसार अधिकार सर्वमान्य हैं।
- मार्क्सवाद के अनुसार अधिकार परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ परिवर्तित होते रहते हैं।
- मार्क्सवाद आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों पर बल देता है।
- स्टालिन के अनुसार, “एक भूखे-नंगे और कल की चिंता से ग्रस्त व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है।”
मानवीय गरीमा और काण्ट के विचार
इमानुएल काण्ट के विचार अपने अधिकार की एक नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। हमें दूसरों के साथ वैसा ही आचरण करना चाहिए जैसा हम अपने लिए दूसरों से अपेक्षा करते हैं।
हमें यह निश्चित करना चाहिए कि हम दूसरों को अपने स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं बनाएंगे। हमें लोगों के साथ उस तरह का बर्ताव नहीं करना चाहिए जैसा हम कलम, कार या घोड़े के साथ करते हैं। हमें लोगों का सम्मान करना चाहिए, इसलिए नहीं कि वे हमारे लिए उपयोगी है, बल्कि इसलिए कि वह आखिरकार मनुष्य है।
मानवीय अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा
UNO की आर्थिक और सामाजिक परिषद द्वारा श्रीमती एलोनोर रूजवेल्ट की अध्यक्षता में एक मानव अधिकार आयोग (Human Rights Commission) की स्थापना की गई।
आयोग द्वारा तैयार घोषणापत्र को महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को निर्विरोध स्वीकार किया। घोषणा की प्रस्तावना में मानव जाति की जन्मजात गरिमा और सम्मान तथा अधिकारों पर बल दिया गया है।
घोषणा पत्र में 30 धाराएं हैं। जिसमें मानव के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
कानूनी अधिकार का सिद्धांत किसने प्रतिपादित किया था?
उत्तर : कानूनी अधिकार का सिद्धांत बेंथम, ऑस्टिन, हॉब्स (सर्वप्रथम), होलैंड, सालमण्डा आदि ने प्रतिपादित किया था।
प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत किसने प्रतिपादित किया था?
उत्तर : प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत सामाजिक समझौता सिद्धांत (Social Contract Theory) के प्रतिपादक (हॉब्स, लॉक, रूसो) ने प्रतिपादित किया जो इस सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थक रहे हैं।
किसे कानूनी अधिकारों के सिद्धांत का प्रमुख उन्नायक कहा जाता है?
उत्तर : ऑस्टिन (Austin) को कानूनी अधिकारों के सिद्धांत का प्रमुख उन्नायक कहा जाता है
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा किसने प्रतिपादित की?
उत्तर : प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा हॉब्स, लॉक, रूसो, मिल्टन, वाल्तेयर, टॉमस पेन, ब्लैकस्टोन आदि विद्वानों ने प्रतिपादित की।